बुधवार, 20 जनवरी 2010

राहुलवाणी - अबकी मंहगाई पर

हमारे देश में कई तरह के लोग पाए जाते हैं। पाए जाते हैं शब्द थोड़ा सा सख्त लग सकता है, पर "हर कोई अपना भाग्य लेकर पैदा होता है" ये कहावत सबसे अधिक यहीं पर सच होती है। तो हमारे लोकतान्त्रिक देश में एक खास किस्म का राजपरिवार है, जिसमें परनाना भी हैं, जो देश कि तबाही के कई कारणों के लिए जिम्मेदार रहे हैं। उसी वंश में एक तानाशाह नानी जी भी हो चुकी हैं, जिनके लिए देश के आम आदमी कि जान की भी कोई कीमत न थी (मैं यहाँ पर याद दिलाना चाहूँगा कि आपातकाल के वक़्त संविधान के अनुच्छेद - २१ द्वारा प्रदत्त व्यक्ति के जीने के अधिकार को भी निलंबित कर दिया गया था)। फिर पापा जी आये, जो कठमुल्लाओं के आगे घुटने टेकते नजर आये। खैर देश के सौभाग्य से कुछ सालों तक देश को इस पीढ़ी दर पीढ़ी के शासन से मुक्ति मिली रही, अचानक से ये परिवार अपनी सत्ता (माफ़ करने सत्ता तो देश के लोगो में निहित होनी चाहिए, पर एक परिवार के लोग इसे अपनी समझते हैं, इसलिए ऐसा लिखा है) वापस पाने के लिए लौट आये। अबकी बार यहाँ पर मम्मी जी थीं, तो वे सत्ता के रथ में आगे एक अन्य व्यक्ति को बैठाकर उसे कई सालों से हांक रही हैं। (ऐसा महाभारत में भी हो चूका है)। पर यहाँ पर इस राजपरिवार के पास एक राजनीतिक पार्टी भी है, जो कहने को तो राष्ट्रीय पार्टी है, पर जिसमें शामिल होने का बस एक ही उसूल हैं - "परिवार के गुण गाओ, सत्ता कि मलाई पाओ".
खैर अब हमारे वफादार (नोट - कृपया इसे देश कि जनता के प्रति वफादार न समझा जाय) प्रधानमंत्री जी अपने राहुल बाबा को उनका पुश्तैनी हक देने के प्रयास में हैं, पर इसके लिए एक बड़ा ही कष्टकारी (जनता के लिए, उनके लिए नहीं) तरीका अपनाया जा रहा है। सीधा सा फंडा है पहले समस्या बनाओ (कई बार इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती है, जब सरकार काम न करे तो समस्या अपने आप पैदा हो ही जाती है), फिर उस समस्या को तब तक बढ़ाओ, जब तक जनता त्राहिमाम - २ न करने लग जाए, फिर पिक्चर में राहुल बाबा को ले आओ, उनसे एक आध बयान दिलवा दो, और उसके बाद काम शुरू करो, जिससे देश कि भोली जनता (मुझे तो भोली ही लगती है, हो सकता है नेहरु परिवार इस भोलेपन को कुछ और ही समझता हो) को लगे कि अरे राहुल बाबा तो उनका बड़ा ही ख्याल रखते हैं, और उनकी इमेज बनाने का एक और मौका मिल जाए।
इसी कड़ी में हमारे राहुल बाबा ने एक नया बयान दिया, जो कि एक राष्ट्रीय [पारिवारिक] पार्टी के महासचिव के पद पर बैठे व्यक्ति के द्वारा दिया गया हास्यापद सा बयान है - "कांग्रेस के पास मनमोहन सिंह, पी. चिदंबरम, मोंटेक सिंह अहलुवालिया और प्रणव मुखर्जी जैसे अर्थशास्त्री हैं, और इनके प्रयासों से कुछ ही दिनों मैं मंहगाई कम हो जाएगी."
अब सबसे पहली बात तो यही दिमाग में आती है, कि क्या इन लोगों ने कांग्रेस में 'जय परिवार' बोलकर नई - २ इंट्री ली है जो अब मंहगाई कम हो जायेगी, आखिर ये तो तब भी थे जब मंहगाई सुरसा के मुंह कि तरह बढ़ रही थी, (अभी भी बढ़ ही रही है), अचानक से इनके हाथ में कौन सी जादुई छड़ी लग जाएगी कि मंहगाई कम हो जाएगी। और अगर उनके पास ये छड़ी पहले से थी और ये लोग उस छड़ी को घुमाने से पहले परिवार के बयान का इन्तजार कर रहे थे, तो बाबा जी अपने बयान देने में बहुत देर कर दी है, अब तक आपको पता नहीं होगा कि कितने लोग १ साल से रोज दो वक़्त का खाना भी नहीं खा पा रहे हैं, घर के खर्च को काबू में करने के लिए कितनी बेटियों कि पढ़ाई छुड़वा दी जा चुकी है। कितने लोग जिन्होंने इस दौरान अपनी बेटियों का ब्याह किया है, किस भीषण क़र्ज़ में डूब चुके हैं, और कितने छोटे व्यापारी माल की बिक्री बंद होने से तबाह हो चुके हैं। और इस दौरान आपके ये चार [कु]ख्यात अर्थशास्त्री क्या कर रहे थे, आप भले न जाने लेकिन 'ये पब्लिक है, सब जानती है'।
पहले तथाकथित प्रधानमंत्री जी हैं जो हमको विकास दर और सेंसेक्स का झुनझुना दिखा रहे थे, अहलुवालिया जी कि योजनायें तो खैर हमेशा से असफल होने को अभिशप्त हैं हीं। वित्त मंत्री जी कि बस एक बात अच्छी थी वो हमें कोई झुनझुना नहीं दे रहे थे, साफ़ साफ़ शब्दों में कह रहे थे कि भाई विकास(किसका होगा!) होगा तो जनता को थोड़ा-बहुत (या बहुत ज्यादा) कष्ट तो उठाना ही पड़ेगा। रही बात गृह मंत्री जी कि तो उनसे तो हमारी यही उम्मीद है कि पहले वो अपना काम तो ठीक से बिगाड़ लें, अर्थव्यवस्था को बिगाड़ने के लिए बाकी तीन ही पर्याप्त हैं जी, माओवादियों के होते आपके पास इतना टाइम कैसे है, वैसे भी कुछ दिन पहले आप एक पत्रिका में दहाड़ रहे थे "मुझे एक हफ्ता दीजिये, मैं नक्सल वाद को मिटा दूंगा", पहले ये काम एक हफ्ते कि बजाय, एक पूरे कार्यकाल में तो कर लीजिये।
हाँ राहुल बाबा के बयान के बाद अचानक से इस चौकड़ी को मंहगाई एक समस्या नजर आने लगे तो और बात है, आखिर "कांग्रेस[जल] में रहकर परिवार[म..] से बैर" तो लिया नहीं जा सकता है न। काम तो अभी भी ये महान(!) अर्थशास्त्री नहीं ही करेंगे, बस उम्मीद करूँगा कि अपनी चापलूस परंपरा का पूरी तरह से निर्वहन करते हुए(मजबूरी है भाई, इस परम्पर का निर्वहन तो करेंगे ही, और कुछ करें या न करें) ये चौकड़ी कम से कम इस देश कि [गरीब]जनता के जख्मों पर नमक नहीं छिड़केंगे। वैसे सोच रहा हूँ कि मैं भी एक बार 'जय [राज]परिवार' कह दूँ, शायद थोड़ी सी मलाई मेरे हिस्से में भी आ जाय, दाल - शक्कर तो मेरे ही नहीं हर किसी के बस के बाहर जा ही चुकी है।

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