शुक्रवार, 11 जून 2010

मोदी और मायावती

नरेन्द्र मोदी और मायावती दोनों भारतीय राजनीति के कुछ सबसे चर्चित चेहरों में से एक हैं. दोनों में काफी समानताएं और असमानताएं हैं. दोनों की छवि एक सख्त इंसान की है, और माना जाता है कि इनकी सरकार के भीतर ये खुद ही नम्बर दो हैं. अर्थात, दोनों अपनी अपनी सरकार में निर्णय लेने को लगभग पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं. परन्तु कुछ समानताओं के बावजूद दोनों में बड़ी ही ज्यादा विषमतायें हैं. और वैसे तो मैं जानता हूँ कि दूर के ढोल सुहावने ही लगते हैं, पर फिर भी एक बड़ा ही दिलचस्प सत्य है कि हमारे उत्तर प्रदेश के बहुत से लोगों का मानना है कि काश उत्तर प्रदेश में मोदी जैसा कोई सी. एम. बन जाए, तो प्रदेश का भला हो जाय; हाँलाकि, गुजरात वाले मायावती के बारे में ऐसा कितनी बार सोचते हैं, यह एक अध्ययन का विषय है.
अभी विगत दिनों कल दो बातें पढ़ीं. एक तो मोदी का भाजपाई मुख्यमंत्रियों के सम्मलेन में दिया गया व्याख्यान और दूसरा मायावती का निकाय चुनावों को बिना पार्टी चिन्ह के करने का निर्णय. मोदी का भाषण एक नयी सोच को प्रतिबिंबित करता है और प्रशासनिक कार्यप्रणाली में विकास को मुख्य रूप से रेखांकित करता है, वहीँ मायावती का निर्णय स्थानीय विकेंद्रीकरण को हतोत्साहित करने वाला एक निर्णय है.
आज एक आम उत्तर प्रदेश का निवासी गुजरात को देखकर इर्ष्या करता है, तो इसके मूल में कहीं न कहीं मोदी और मायावती तो हैं ही. गुजरात के शहर देश के सबसे सुव्यवस्थित शहरों में से एक हैं, और अपने कानपुर व इलाहाबाद की व्यवस्था के क्या कहने! आप चाहे लखनऊ-अहमदाबाद/गांधीनगर की तुलना कर लें, चाहें कानपुर-सूरत की, गुजराती शहर हमारे शहरों से बीस नहीं, बल्कि इक्कीस बैठेंगे. अहमदाबाद और सूरत की निकायी संस्थाएं लगातार राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार पाती हैं, और हमें तो अभी तक आधे दिन बिजली भी नहीं मिलती है. एक जगह धर्मस्थलों को हटाकर जनता के लिए सड़कें बनती हैं, तो हमारे यहाँ नए धर्मस्थल बनते हैं, जिनमें स्वयं हमारी मुख्यमंत्री जी ही देवियों का रूप रख लेती हैं.
वैसे मोदी और मायावती का राजनीतिक सफ़र में भी ज्यादा अंतर नहीं है. पहले ने सत्ता पर पूरी तरह से कब्ज़ा भारत के दूसरे सबसे भयानक दंगों के बाद साम्प्रदायिकता के रथ पर सवार होकर किया, तो दूसरे नें जातियों के मध्य पहले तो दूरियां बढ़ाकर (तिलक, तराजू और तलवार........) और फिर बाद में उन्हीं का संघ बनाकर (दलित-ब्राहमण सम्मलेन) किया. परन्तु उसके बाद के प्रशासन में जमीन - आसमान का फर्क है. आज जहाँ एक आम गुजराती मोदी को अपना मुख्यमंत्री कहता है, हमारे यहाँ का एक भी आम आदमी शायद ही ऐसी सोच रखता हो. गुजरात में आप मुख्यमंत्री जी से सवाल कर सकते हैं, उनकी वेबसाइट पर जाकर सीधे सीधे सुझाव भी दे सकते हैं, वहीँ यू.पी. में यह हाल है कि अधिसूचना जारी होने के २८ दिन बाद जाकर जनता को पता ही चलता है कि "अरे! ऐसा कब हो गया?" और फिर दो दिन के अन्दर आप पूरी अधिसूचना को समझकर अपनी आपत्तियां दाखिल कैसे करेंगे, ये राज्य सरकार क्यूँ जाने? आप में से ही कोई बताये क्या अपने उत्तर प्रदेश में ऐसा हो सकता है कि मैं अपनी समस्या को सीधे सी.एम. आफिस तक पहुँचा सकूँ.
वैसे २०१२ मैं दोनों राज्यों में चुनाव होंगे, जिसमें माना जा रहा है कि दोनों की ही सत्ता में वापसी हो जायेगी, बस कारण थोड़े अलग हैं. मोदी जी की जहाँ अपनी छवि के बल पर चुनाव जीतने की संभावना है, वहीँ मायावती जी के विरोधियों की छवि के बल पर. आखिर उत्तर प्रदेश के विपक्ष में कोई विकल्प के रूप में मायावती से बेहतर भी तो नहीं दिखता है. खैर अब जैसी राजनीति, वैसा प्रदेश. गुजरात वाले विकास, सड़कों, बिजली और रोजगार के मुद्दों पर वोट करेंगे, और चुनाव के बाद उन्हें वो मिलेगा भी, और हम करेंगे हमेशा कि तरह जात-पात के आधार पर, तो हमें भी इससे ज्यादा कुछ मिलेगा भी नहीं, कम से कम बिजली, सड़क और रोजगार तो नहीं ही. तो बात घूम फिर कर मोदी और मायावती से हटकर हम पर ही आती है. आखिर मोदी और मायावती को हम ही चुनते हैं, और नतीजे भी हमीं को मिलते हैं.

मंगलवार, 8 जून 2010

भोपाल के बहाने : क्या हमें अब क्रांति की जरूरत है?

आखिर भोपाल - गैस काण्ड का न्याय आ गया. ३ दिसंबर १९८४ की सुबह भोपाल की सड़कों पर ढेर सारी लाशें बिछी थीं. वो मानव थे, पर जीवित ना थे. पर हमारे नीति - नियंताओं के लिए शायद वो मानव न थे. अगर होते तो उनकी जिंदगी की कीमत इतनी सस्ती न होती. २६ साल के बाद अदालत का नतीजा और वो भी आरोपियों को बस २- २ साल की कैद की सजा, परन्तु इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात, आरोपियों को उसी दिन जमानत भी मिल जाना. क्या २०००० आम गरीब भारतीयों की जान इतनी सस्ती है? और इस पर हाय तौबा मचा रहे हैं वो लोग जिनके कन्धों पर जिम्मेदारी थे इस पूरे मामले को अंजाम तक पहुचाने की. पता नहीं त्रासदी क्या थी, जो उस रात हुई, या फिर जो उसके बाद उस घटना के पीड़ितों के साथ २६ सालों में हुआ. यही नहीं जब फैसला आया हमारे प्रधानमंत्री जी उस वक़्त हमें यह बताने में व्यस्त थे, कि हमारे लिए पाकिस्तान कि खुशहाली कितनी जरूरी है.
मामले का मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन आज तक हमारी सरकार के हाथों के बाहर है, और न्यूयार्क के निकट एक कोठी में आराम फरमा रहा है (हमारे प्रधानमंत्री के अनुसार भारत - अमेरिका सम्बन्ध नयी ऊंचाइयों पर हैं). याद रहे कि वारेन एंडरसन को देश से बाहर एक सरकारी विमान में बैठाकर भेजा गया था, और उसके बाद भारत सरकार ने आज तक उसको फिर से भारत लाने का कोई प्रयास नहीं किया. इसके पीछे माना जाता है कि सरकार कि यह सोच है कि ऐसा करने से विदेशी निवेश गिर सकता है. विश्व कि सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदियों में से एक के आरोपी मात्र इस कारण बाहर हो सकते हैं, तो आप जान सकते हैं कि हम कितनी बड़ी विश्व महाशक्ति बन चुके हैं. वास्तव में हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं, जहाँ पर मेरे और आप जैसे लोगों का मूल्य कुछ कागज के टुकड़ों में नापा जा सकता है. कभी वो ६०००० हो सकता है, कभी १,००,००० या कभी ५ लाख. पर यह तय है कि हमारा मूल्य इन चंद रुपयों से ज्यादा कुछ नहीं है.
हम एक लोकतांत्रिक देश में हैं, ऐसा तो अब आभास होना भी बंद हो गया है. हम एक ऐसे देश में हैं जहाँ कोई भी साजिश रचकर कितनों को मार सकता है और हम कुछ नहीं करेंगे (रिचर्ड हेडली प्रकरण) , किसी की लापरवाही से हजारों अमूल्य जाने जाएँ, हम तब भी कुछ नहीं करेंगे(वारेन एंडरसन), कोई हमारे लोकत्रंत के सर्वोच्च स्तम्भ पर हमला करे, हम तब भी कुछ नहीं करेंगे (अफज़ल गुरु), कोई देश में आकर घोटाले कर जाय, हम तब भी कुछ नहीं करेंगे, और उसे भला आदमी भी कहेंगे(क्वात्रोची प्रकरण). यदि आपको सम्पूर्ण विश्व में इससे कमजोर सत्ता कोई और दिखे तो बताइयेगा.
और इस काण्ड के बाद भी हमारा अमेरिकी कंपनियों पर विश्वास तो देखिये, हम एक विधेयक लाने जा रहे हैं, जिसमे अब उन कंपनियों को इजाजत होगी कि अगर उनकी वजह से कोई परमाणु विकिरण जैसी घटना भी हो जाए, और लाखों नहीं करोड़ों भी मर जाएँ तो भी हम उसको सजा नहीं देंगे.
आखिर कब तक हम कुछ सत्ताधारियों की सनक को भुगतेंगे? क्रांति की बात करने वाले रूमानी दुनिया में जीने वाले लोग हो सकते हैं, पर आप ही बताएं, आज हमारे और आपके पास और कितने रास्ते बचे हैं, अपने अस्तित्व को बचने के लिए?