शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

राष्ट्रमंडल खेलों की जरूरतें

आजकल राष्ट्रमंडल खेलों(!) का बड़ा हल्ला मचा हुआ है। वैसे तो मैं खेलों और खिलाडियों की काफी इज्जत करता हूँ, पर जिस तरह से ये खेल हो रहे हैं, मन दुखी सा हो गया है। पहले तो जिस तरह से तैयारी हुई, उसी ने देश कि इज्जत की काफी मिटटी-पलीद की। पर इतने से ही संतोष कर लिया जाता अगर सब कुछ सही होता। पर इन खेलों ने एक नहीं कई सवाल उठाये हैं।
जब ये खेल भारत लाये गए तो बहुत ही सस्ते थे, पर अब जाकर पता चल रहा है कि इन खेलों में देश कि जनता की गाढ़ी कमाई के ७०००० करोड़ रुपये बहा दिए गए। सबसे पहली बात तो ये थी कि इन खेलों के देश में आयोजन की जरूरत ही क्या थी? आखिर राष्ट्रमंडल समूह उन देशों का ही गुट है जो कभी ब्रिटेन के उपनिवेश थे। और ऐसे खेलों को अपने देश में लाकर हम खुश हो रहे थे। उसके बाद से शुरू हुआ विवादों और कष्टों का सिलसिला। एक तरफ कलमाड़ी जी थे जिन्होंने साफ़ साफ़ कहा कि देश से उनको कोई मतलब नहीं है, उनके लिए बस आलाकमान का निर्देश ही सब कुछ है। और उनके ही एक साथी हैं, देश के सम्माननीय खेल मंत्रीजी जो कभी कुश्ती के कोच का अपमान करते हैं और कभी बैडमिन्टन के कोच का, लेकिन उनका दावा है कि वो देश में खेल कि संस्कृति ले आयेंगे।
इतने लोगों से ही जब पेट नहीं भरा तो सीन में हमारे प्यारे और शरीफ(!) प्रधानमंत्री जी आते हैं, उनका कहना है कि ये तो देश कि इज्जत का सवाल है कि कैसे भी पैसे लुटाकर राष्ट्रमंडल खेलों को सफल बना दिया जाय जिससे दुनिया वालों को पता चल जाए कि भारत (माफ़ कीजियेगा, इंडिया) ने कितनी तरक्की कर ली है। हाँ! क्या फर्क पड़ता है अगर मानव विकास सूचकांक के हिसाब से हम कई अफ्रीकी देशों से भी पीछे हैं, देश तो विकास कर रहा है न। ये प्यारे प्रधानमंत्री जी खेलों के पूरा होने को अपनी इज्जत का प्रश्न बनाये बैठे थे, पर जब सर्वोच्च अदालत ने सड़ रहे अनाज को गरीबो को देने को कहा तो इन महानुभाव ने ही शिष्ट शब्दों में अदालत को औकात में रहने की बात भी कह डाली थी, और इनके खाद्द्य मंत्री ने कहा कि अनाज सड़ जाने देंगे पर गरीबों को नहीं देंगे (तुलना - सर कट जाने देंगे पर झुकने नहीं देंगे)
उसके बाद देश के अपमान कि जंजीर में एक और कड़ी उदघाटन वाले दिन जोड़ी गयी। दी ग्रेट ब्रिटेन की हर हाइनेस नहीं आ पायीं तो भी उनके सुपुत्र जी तो पधारे ही थे, और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के कर्ता-धर्ता उनके भाषण पर तालियाँ पीट रहे थे। किसी को ये भी ख्याल न था कि इस तरह से हम एक लोकतान्त्रिक देश के प्रथम नागरिक को एक राजशाही के समकक्ष रख रहे हैं। परिवारवाद की घोर समर्थक कांग्रेस और उसके अंग्रेजीदां नेताओं से ये उम्मीद बेमानी न थी; पर क्षोभ के बात तो ये थी कि राष्ट्रवाद की समर्थक भाजपा और उसके नेता भी इस पर दर्शक दीर्घा में बैठकर मुस्कुरा रहे थे कि इंग्लैण्ड का राजकुमार खेलों का उदघाटन कर रहा है। कल तक यही लोग राष्ट्र सम्मान की बातें कर रहे थे, और आज राष्ट्र के अपमान पर हंस रहे थे।
और सबसे बड़ी बात देश के स्वास्थ्य बजट से भी ज्यादा पैसा गुलामी के प्रतीक खेलों पर खर्च कर देना कहीं से भी न्याय सांगत नहीं है। और अगर खेलों को ही बढावा देना था तो ये मात्र दिल्ली में स्टेडियम बना देने से खेलों का विकास होने से रहा। और वैसे भी जब तक देश के हर हजार में से 5० बच्चे जन्म लेते ही काल के गाल में समां जाते हों, आधी से ज्यादा आबादी के पास पेट भरने को अन्न न हो, लोगों के पास शिक्षा के समुचित अवसर न हो, छोटे तो छोटे, बड़े शहरों में भी लोग बिना इलाज के मर रहे हों, वहां पर देश की प्राथमिक जरूरतें सही तय होनी चाहिए.