गुरुवार, 20 अगस्त 2009

चल चलें, लड़ चलें .

कल एक नई मूवी देखि - "चल चलें "। डायरेक्टर उज्जवल सिंह ने एक साधारण पर एक बेहद ही महत्वपूर्ण मुद्दे पर यह फ़िल्म बनायी है। यह आज के किशोरों की मनोदशा को व्यक्त करती है, जो माता-पिता की आकाँक्षाओं और ख़ुद के सपनों के बीच में कहीं करह रही है। आज एक लड़का क्या बनना चाहता है, ये वो नही उसके माँ-बाप तय करते हैं। हम सोचते हैं कि शिक्षा जीवोपार्जन के लिए ली जाती है, जबकि वास्तव में इसका मुख्य उद्देश्य तो ज्ञान प्रदान करना है। इसी प्रोफेशनल शिक्षा ने आज बच्चों को एक बहुत ही महत्वपूर्ण वस्तु से वंचित कर दिया है, और वो है 'साहित्य' एवं 'इतिहास'। उनके पास फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथ/ जीव विज्ञानं पड़ने का इतना अधिक दबाव है कि वो साहित्य और मानविकी के विषयों को पहले तो सिर्फ़ खाना-पूर्ति के लिए पढ़ते हैं, और बाद में ये विषय कथित तौर पर पढने ना वाले बच्चों के द्वारा पढ़े जाते है।
अब हमारी पूरी नई पीढ़ी अगर अपनी जड़ों से कटी हुई और मानवीय संवेदनाओं से दूर है, तो कसूर किसका है। आखिर IIT जैसे गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाली परीक्षाएं देने वाले बच्चे कैसे बनेंगे। मेरे या मेरी पीढ़ी के हर युवक या किशोर को हमारे माँ-बाप ने जीतना तो सिखाया, पर हमें एक बात कभी सिखाई नही गई कि कभी हम हारतें भी हैं। हमसे एक अनचाही ज़ंग (अनचाही इसलिए क्यूंकि इतिहास में रूचि रखने के बावजूद एक बच्चा पढ़ता क्या है - वही इंजीनियरिंग और डाक्टरी।) जीतने कि उम्मीद कि जाती है। यह सोच ही नही जाता है कि हम क्या सोचतें हैं, हमें क्या पसंद है।
फ़िल्म में एक बच्चा इसी दबाव में ख़ुद को समाप्त कर लेता है, हमारे देश के सबसे अच्छे संस्थानों में आत्महत्या कि डर सर्वाधिक है. कोई भी इसका कारन नही खोजता है. बस एक कामचलाऊ सा बयान दे दिया जाता है कि आज कि युवा पीढ़ी जरा सी भी नाकामी नही सह पाती है. पर आख़िर उनको यह सीख देगा कौन, आज-कल के अभिभावक तो देने से रहे. वो तो अपने कक्षा १ और २ में पड़ने वाले बच्चों के रिजल्ट के दबाव को ख़ुद ही नही झेल पाते हैं. अतः उनसे तो उम्मीद करना बेमानी है. सरकार से तो खैर किसी भी बात पर उम्मीद नही रखी जा सकती है। सामाजिक सारोकारों से तो सरकार कब कि दूर हो चुकी है। इसका कोई समाधान तो मुझे समझ में नही आ रहा है, सिवाय इस उम्मीद के कि एक दिन हम, मतलब हमारा समाज बदलेगा।
तब तक तो बस यही दुआ कि जा सकती है कि हम दबाव के आगे टूटे नही, और जीतना ही नही, लड़ना भी सीखें, वो भी एक-दूसरे के विरोध में नही, सबके साथ मिलकर।

बुधवार, 12 अगस्त 2009

EUMA

पिछले कुछ दिनों से भारत और अमेरिका के संबंधों को नया आयाम देने वाला तथाकथित EUMA (End-Use Monitoring Agreement) के बारे में काफी कुछ कहा लिखा गया। संसद भी अछूता नही रहा। सरकार और विपक्ष के बीच में कुछ तीखी नोक-झोंको का गवाह बना मानसून सत्र
सरकार की लाख सफाई के बावजूद विपक्ष संतुष्ट नही हुआजहाँ सरकार इसे एक मील का पत्थर बताती रही, वहीं विपक्ष ने इसे देश की संप्रभुता पर प्रश्नचिह्न लगाने वाला समझौता करार दिया। प्रथम दृष्टया देखा जाए तो विपक्ष के सारे आरोप सही नजर आते हैं।
करार की एक शर्त के अनुसार अमेरिका को यह अधिकार रहेगा कि भारत द्वारा ख़रीदे गये किसी भी अमेरिकी हथियार, या अन्य कोई भी सैन्य साजो-सामान की अमेरिका कभी भी जांच कर सकेगा। राहत की बात बस इतनी ही है, कि करार के अनुसार उस जांच के लिए दिन और जगह के निर्धारण का अधिकार भारत को होगा। यह भारत द्वारा किसी भी देश के साथ किया गया अपनी तरह का पहला करार है, जहाँ हम बाध्य होंगे अपने हथियारों को किसी विदेशी नागरिक(! - मतलब CIA, Pentagon officers etc.) के द्वारा जांच करवाने के लिए। इतना ही नही, भारत को सभी अमेरिकी साजो-सामान का रिकॉर्ड भी रखना होगा, और वो भी अमरीकी जांच के दायरे में आएगा।
भारत को सैन्य आपूर्ति करने वाले किसी भी अन्य देश के साथ ऐसी कोई भी शर्त नही है। फिर वर्तमान भारत सरकार के अमेरिका प्रेम कि कोई वजह समझ में नही आती है। वैसे भी हमने एक ऐसे देश को यह अधिकार दे डाला है, जिसका एक प्रमुख सहयोगी वह देश है जो भारत के साथ ३ बार युध्द कर चुका है और हज़ार साल तक लड़ने का दावा करता है.
और जहाँ तक रही जगह और समय का निर्धारण करने के अधिकार कि बात तो व्यवहार में ऐसा कितना मुश्किल है इसको आसानी से समझा जा सकता है। अगर कोई अमेरिकी राडार सिस्टम हमारी किसी पनडुब्बी या नौसैनिक पोत में संलग्न हो, इस अवस्था में जांच बस दो ही तरीके से हो सकती हैपहला, कि हम अमेरिकी अधिकरियों को अपने पोत में प्रवेश का अधिकार दें या फिर पनडुब्बी या नौसैनिक पोत से राडार सिस्टम को अलग करके जांच कि प्रस्तावित जगह पर ले जाया जाय। दोनों ही स्थितियां हमारे अनुकूल नहीं हैं। और यह हमारी संप्रभुता पर एक किस्म का हमला होगा।
यही नही करार के अनुसार भारत को यह अधिकार भी नही रहेगा, कि वह अमेरिकी हथियारों में किसी भी प्रकार का फेरबदल कर सके। मतलब यह है कि हम अमेरिकी सैन्य सामान के कंप्यूटर प्रोग्राम्स भी नही बदल सकते हैं, कंप्यूटर कि जानकारी रखने वाला कोई भी शख्स आसानी से यह बता सकता है, कि इसका मतलब है हम अपने ख़ुद के ख़रीदे गए हथियार को प्रोग्राम बदल कर और अधिक सुरक्षित नही कर सकते हैं।
सरकार अभी भी अमेरिका से मैत्री का राग अलाप रही है, जबकि कुछ ही दिन पहले परमाणु उर्जा कि राह में अमेरिका G-8 बैठक में कांटें बो चुका है।
सरकार को चाहिए कि तत्काल प्रभाव से इस समझौते को रद्द करे, वरना यह एक ऐसी गलती होगी, जो हमें बरसों तक सालती रहेगी।