मंहगाई और सरकार में बड़ा ही विचित्र सम्बन्ध होता है. सरकार मंहगाई से चिंतित होती है, जोर जोर से शोर करती है कि वो चिंतित है, परन्तु मंहगाई के बाजार में "होवहि वही जो, मुनाफाखोर रचि राखा". सरकार पस्त है, कहती है कि वायदा कारोबार कि वजह से कीमतें ऊपर हैं, लोग पूछते हैं कि अगर ऐसा है तो उसे बंद किया जाय. फिर २ दिन बाद नया बहाना आता है कि भाई ये तो अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ऊँची कीमतों कि वजह से है, फिर लोगों के हाथ में एक नया सवाल आता है कि एक कृषि प्रधान देश में दूसरे देशों की वजह से कीमत क्यूँ बढ़ रही है. अब बेचारी सरकार को कुछ नहीं सूझता है तो कभी कहती है कि मीडिया हाइप है, तो कभी कुछ और. वो तो अच्छा है की राव साहब का जमाना नहीं है, वरना पूरी उम्मीद थी कि सरकार को विपक्षी दलों कि साजिश नजर आ जाती. खैर बात वापस वहीँ है बेचारी जनता क्या खाए और कैसे जिए पर सरकार मस्त है, कम से कम २०१४ तक तो है ही. उसे पता है कि अभी तो ४ साल से भी ज्यादा बचे हैं अगले चुनावों में और ऐसी ही मंहगाई रही तो इस देश से गरीब मिट जायेंगे ही और उनके साथ गरीबी भी. फिर उछली हुई विकास दर चुनाव तो जिता ही देगी.
bhai kaha se pate ho itne ache vichaar....
जवाब देंहटाएंsudhir...