हमारे उत्तर प्रदेश की एक एथलीट हैं - सुधा सिंह. आज कल बेचारी थोड़ी परेशान हैं. कारण : उनको एक खेल समारोह में बुलाया गया और उचित सम्मान नहीं मिला. अब पूरा घटनाक्रम थोड़ा विस्तार से वर्णित करते हैं.
सबसे पहले ये बताते हैं कि आखिर सुधा सिंह हैं कौन? ये भारत की एक महिला खिलाडी हैं, जाहिर सी बात है कि इनका भी जन्म एक अमीर घर में नहीं हुआ होगा, परन्तु जन्मजात प्रतिभा की धनी इस महिला खिलाड़ी ने एशियाई खेलों में 3000 मीटर बाधादौड़ (steeplechase) प्रतियोगिता का स्वर्ण पदक जीत देश और हम सब का मस्तक ऊंचा कर दिया था. बस इतनी सी बात थी, पर इतने से ही उन्होंने ये उम्मीद कर ली कि इनको अब सम्मान मिलना शुरू हो जाएगा. अब आप ही बताइए, ये भी भला कोई बात हुई, इस देश में खिलाडियों को कभी इज्जत और सम्मान मिला है क्या? यकीन न आये तो याद कीजिये कि देश में ही आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों में सबसे अच्छा प्रदर्शन किसने किया था. मुझे उम्मीद है कि आपके मन में सबसे पहला नाम कलमाड़ी जी का ही आया होगा. है ना?
तो, एक खेल प्रतियोगिता 'महिला ओपन क्रास कंट्री' में उनको विशिष्ट अतिथि और खेल मंत्री जी को बतौर मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया. अब किसी भी समर्पित खिलाड़ी की तरह हमारी खिलाड़ी महोदया समय पर पहुँच गयीं और उनको एक बैज और गुलदस्ता भी पकड़ा दिया गया. इसके बाद मंत्री जी का भी आगमन हुआ; सुधा जी ने उनसे मिलने की इच्छा जताई. सुधा जी को तो लगा कि उन्होंने तो पूरे एशिया को जीत लिया है, तो वो मंत्री जी से भी मिल सकती हैं. पर इस दौरान कुछ अजीब सा हुआ. सारे के सारे पदाधिकारी देश का नाम रोशन करने वाली इस धाविका को छोड़कर मंत्री जी की तरफ भाग लिए. अब इसमें उन बेचारों की भी क्या गलती? आखिर सुधा जी तो उनको किसी खेल संघ का अध्यक्ष तो बना नहीं सकती हैं और ना ही किसी विदेशी दौरे पर भेज सकती हैं. ये काम तो मंत्री जी ही करा सकते हैं ना. मैं तो कहता हूँ कि आखिर सुधा जी ने ये सोच भी कैसे लिया कि उन्होंने सोना जीतकर कोई कमाल कर दिया है. असली कमाल करने का हक तो इस देश में सिर्फ नेताओं को है. (अगर राडिया जी या दूसरी वाली नीरा जी भी बुरा माने, तो मैं उनका नाम भी जोड़े देता हूँ).
बस इतनी सी बात थी और सुधा जी नाराज हो गयीं और वहां से चली गयीं. उनको जाते सबने देखा, पर किसी ने रोका भी नहीं, ना मंत्री ने और ना मंत्री जी की प्रजा ने. वैसे भाई उन्होंने भी सोचा होगा कि जितना सम्मान करना था, कर तो दिया, अब जाने ही देते हैं, वरना फालतू में गेट तक छोड़ना पड़ता.
आगे सुधा जी ने कह दिया कि वो अब उत्तर प्रदेश की ओर से नहीं खेलेंगी. तो आखिर कहाँ जायेंगी मैडम? आपको क्या लगता है कि बाकी राज्यों में मंत्री नहीं होते और वहां पर आपको कोई ज्यादा सम्मान मिल जाएगा. वहां पर भी आपको एक गुलदस्ते से ज्यादा कुछ मिलने से रहा. और वहां भी लोग आपको छोड़कर मंत्री के पीछे ही भागेंगे, चाहे आप एशियाई खेल तो क्या ओलम्पिक का स्वर्ण ही क्यूँ ना जीत लें. भाई इस देश की परंपरा तो कुछ ऐसी ही है. तो हम तो यही चाहेंगे कि कृपया अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करें और प्रदेश में ही रहें क्योंकि आप और अन्य सभी खिलाड़ी हम जैसे आम लोगों के दिल से मिल रहे सम्मान के हक़दार हैं, इन मंत्रियों या इनके संतरियों से मुलाकात के नहीं. तो ऐसे ही खेलती रहिये और देश का और हम सबका नाम ऊँचा करती रहिये.
(चित्र साभार - www.rediff.com/sports)
सोमवार, 20 दिसंबर 2010
शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010
राष्ट्रमंडल खेलों की जरूरतें
आजकल राष्ट्रमंडल खेलों(!) का बड़ा हल्ला मचा हुआ है। वैसे तो मैं खेलों और खिलाडियों की काफी इज्जत करता हूँ, पर जिस तरह से ये खेल हो रहे हैं, मन दुखी सा हो गया है। पहले तो जिस तरह से तैयारी हुई, उसी ने देश कि इज्जत की काफी मिटटी-पलीद की। पर इतने से ही संतोष कर लिया जाता अगर सब कुछ सही होता। पर इन खेलों ने एक नहीं कई सवाल उठाये हैं।
जब ये खेल भारत लाये गए तो बहुत ही सस्ते थे, पर अब जाकर पता चल रहा है कि इन खेलों में देश कि जनता की गाढ़ी कमाई के ७०००० करोड़ रुपये बहा दिए गए। सबसे पहली बात तो ये थी कि इन खेलों के देश में आयोजन की जरूरत ही क्या थी? आखिर राष्ट्रमंडल समूह उन देशों का ही गुट है जो कभी ब्रिटेन के उपनिवेश थे। और ऐसे खेलों को अपने देश में लाकर हम खुश हो रहे थे। उसके बाद से शुरू हुआ विवादों और कष्टों का सिलसिला। एक तरफ कलमाड़ी जी थे जिन्होंने साफ़ साफ़ कहा कि देश से उनको कोई मतलब नहीं है, उनके लिए बस आलाकमान का निर्देश ही सब कुछ है। और उनके ही एक साथी हैं, देश के सम्माननीय खेल मंत्रीजी जो कभी कुश्ती के कोच का अपमान करते हैं और कभी बैडमिन्टन के कोच का, लेकिन उनका दावा है कि वो देश में खेल कि संस्कृति ले आयेंगे।
इतने लोगों से ही जब पेट नहीं भरा तो सीन में हमारे प्यारे और शरीफ(!) प्रधानमंत्री जी आते हैं, उनका कहना है कि ये तो देश कि इज्जत का सवाल है कि कैसे भी पैसे लुटाकर राष्ट्रमंडल खेलों को सफल बना दिया जाय जिससे दुनिया वालों को पता चल जाए कि भारत (माफ़ कीजियेगा, इंडिया) ने कितनी तरक्की कर ली है। हाँ! क्या फर्क पड़ता है अगर मानव विकास सूचकांक के हिसाब से हम कई अफ्रीकी देशों से भी पीछे हैं, देश तो विकास कर रहा है न। ये प्यारे प्रधानमंत्री जी खेलों के पूरा होने को अपनी इज्जत का प्रश्न बनाये बैठे थे, पर जब सर्वोच्च अदालत ने सड़ रहे अनाज को गरीबो को देने को कहा तो इन महानुभाव ने ही शिष्ट शब्दों में अदालत को औकात में रहने की बात भी कह डाली थी, और इनके खाद्द्य मंत्री ने कहा कि अनाज सड़ जाने देंगे पर गरीबों को नहीं देंगे (तुलना - सर कट जाने देंगे पर झुकने नहीं देंगे)
उसके बाद देश के अपमान कि जंजीर में एक और कड़ी उदघाटन वाले दिन जोड़ी गयी। दी ग्रेट ब्रिटेन की हर हाइनेस नहीं आ पायीं तो भी उनके सुपुत्र जी तो पधारे ही थे, और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के कर्ता-धर्ता उनके भाषण पर तालियाँ पीट रहे थे। किसी को ये भी ख्याल न था कि इस तरह से हम एक लोकतान्त्रिक देश के प्रथम नागरिक को एक राजशाही के समकक्ष रख रहे हैं। परिवारवाद की घोर समर्थक कांग्रेस और उसके अंग्रेजीदां नेताओं से ये उम्मीद बेमानी न थी; पर क्षोभ के बात तो ये थी कि राष्ट्रवाद की समर्थक भाजपा और उसके नेता भी इस पर दर्शक दीर्घा में बैठकर मुस्कुरा रहे थे कि इंग्लैण्ड का राजकुमार खेलों का उदघाटन कर रहा है। कल तक यही लोग राष्ट्र सम्मान की बातें कर रहे थे, और आज राष्ट्र के अपमान पर हंस रहे थे।
और सबसे बड़ी बात देश के स्वास्थ्य बजट से भी ज्यादा पैसा गुलामी के प्रतीक खेलों पर खर्च कर देना कहीं से भी न्याय सांगत नहीं है। और अगर खेलों को ही बढावा देना था तो ये मात्र दिल्ली में स्टेडियम बना देने से खेलों का विकास होने से रहा। और वैसे भी जब तक देश के हर हजार में से 5० बच्चे जन्म लेते ही काल के गाल में समां जाते हों, आधी से ज्यादा आबादी के पास पेट भरने को अन्न न हो, लोगों के पास शिक्षा के समुचित अवसर न हो, छोटे तो छोटे, बड़े शहरों में भी लोग बिना इलाज के मर रहे हों, वहां पर देश की प्राथमिक जरूरतें सही तय होनी चाहिए.
जब ये खेल भारत लाये गए तो बहुत ही सस्ते थे, पर अब जाकर पता चल रहा है कि इन खेलों में देश कि जनता की गाढ़ी कमाई के ७०००० करोड़ रुपये बहा दिए गए। सबसे पहली बात तो ये थी कि इन खेलों के देश में आयोजन की जरूरत ही क्या थी? आखिर राष्ट्रमंडल समूह उन देशों का ही गुट है जो कभी ब्रिटेन के उपनिवेश थे। और ऐसे खेलों को अपने देश में लाकर हम खुश हो रहे थे। उसके बाद से शुरू हुआ विवादों और कष्टों का सिलसिला। एक तरफ कलमाड़ी जी थे जिन्होंने साफ़ साफ़ कहा कि देश से उनको कोई मतलब नहीं है, उनके लिए बस आलाकमान का निर्देश ही सब कुछ है। और उनके ही एक साथी हैं, देश के सम्माननीय खेल मंत्रीजी जो कभी कुश्ती के कोच का अपमान करते हैं और कभी बैडमिन्टन के कोच का, लेकिन उनका दावा है कि वो देश में खेल कि संस्कृति ले आयेंगे।
इतने लोगों से ही जब पेट नहीं भरा तो सीन में हमारे प्यारे और शरीफ(!) प्रधानमंत्री जी आते हैं, उनका कहना है कि ये तो देश कि इज्जत का सवाल है कि कैसे भी पैसे लुटाकर राष्ट्रमंडल खेलों को सफल बना दिया जाय जिससे दुनिया वालों को पता चल जाए कि भारत (माफ़ कीजियेगा, इंडिया) ने कितनी तरक्की कर ली है। हाँ! क्या फर्क पड़ता है अगर मानव विकास सूचकांक के हिसाब से हम कई अफ्रीकी देशों से भी पीछे हैं, देश तो विकास कर रहा है न। ये प्यारे प्रधानमंत्री जी खेलों के पूरा होने को अपनी इज्जत का प्रश्न बनाये बैठे थे, पर जब सर्वोच्च अदालत ने सड़ रहे अनाज को गरीबो को देने को कहा तो इन महानुभाव ने ही शिष्ट शब्दों में अदालत को औकात में रहने की बात भी कह डाली थी, और इनके खाद्द्य मंत्री ने कहा कि अनाज सड़ जाने देंगे पर गरीबों को नहीं देंगे (तुलना - सर कट जाने देंगे पर झुकने नहीं देंगे)
उसके बाद देश के अपमान कि जंजीर में एक और कड़ी उदघाटन वाले दिन जोड़ी गयी। दी ग्रेट ब्रिटेन की हर हाइनेस नहीं आ पायीं तो भी उनके सुपुत्र जी तो पधारे ही थे, और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के कर्ता-धर्ता उनके भाषण पर तालियाँ पीट रहे थे। किसी को ये भी ख्याल न था कि इस तरह से हम एक लोकतान्त्रिक देश के प्रथम नागरिक को एक राजशाही के समकक्ष रख रहे हैं। परिवारवाद की घोर समर्थक कांग्रेस और उसके अंग्रेजीदां नेताओं से ये उम्मीद बेमानी न थी; पर क्षोभ के बात तो ये थी कि राष्ट्रवाद की समर्थक भाजपा और उसके नेता भी इस पर दर्शक दीर्घा में बैठकर मुस्कुरा रहे थे कि इंग्लैण्ड का राजकुमार खेलों का उदघाटन कर रहा है। कल तक यही लोग राष्ट्र सम्मान की बातें कर रहे थे, और आज राष्ट्र के अपमान पर हंस रहे थे।
और सबसे बड़ी बात देश के स्वास्थ्य बजट से भी ज्यादा पैसा गुलामी के प्रतीक खेलों पर खर्च कर देना कहीं से भी न्याय सांगत नहीं है। और अगर खेलों को ही बढावा देना था तो ये मात्र दिल्ली में स्टेडियम बना देने से खेलों का विकास होने से रहा। और वैसे भी जब तक देश के हर हजार में से 5० बच्चे जन्म लेते ही काल के गाल में समां जाते हों, आधी से ज्यादा आबादी के पास पेट भरने को अन्न न हो, लोगों के पास शिक्षा के समुचित अवसर न हो, छोटे तो छोटे, बड़े शहरों में भी लोग बिना इलाज के मर रहे हों, वहां पर देश की प्राथमिक जरूरतें सही तय होनी चाहिए.
शुक्रवार, 2 जुलाई 2010
"अस्वागतम प्रधानमंत्री जी"
प्रिय / (अ)लोकप्रिय प्रधानमंत्रीजी,
आपको एक दिलचस्प घटना-क्रम बताता हूँ. जैसा कि सबको पता है कि आप कल अपने पावन चरणों को हमारे संस्थान आई.आई.टी. कानपुर और शहर के एक अन्य स्थान में रखकर और अपनी खास सुरक्षा के कारण हम जैसे आम छात्रों और नगरवासियों को भरपूर परेशान करेंगे; मैंने विचार किया था कि आपको एक ज्ञापन के माध्यम से अपनी और अपने देशवासियों कि समस्याओं से अवगत कराऊंगा. अतः मैंने क्या माँगे दी जाए इस पर एक मित्र से विचार करना प्रारंभ किया. मेरे मित्र ने जो पहली बात कही वो आँखे खोलने वाली थी. उसने कहा "माँगों पर बाद में विचार करेंगे, पहले ये बताओ कि, तुमको क्या लगता है, मनमोहन जी को माँगे सौपने से कोई फायदा होने वाला है?". मैं इस प्रश्न पर निरुत्तर रह गया. मैं खुद ऐसा एक फायदा नहीं सोच पा रहा था, जो आपको माँगे सौपने से हो.
यह बात काफी समय तक मेरे दिमाग में घूमती रही. आखिर प्रधानमंत्री से भी कोई उम्मीद न होना लोकतंत्र के लिए कतई शुभ नहीं है. मैंने एक बात सीखी है और मैं आपसे वो बात कहना चाहता हूँ... नेतृत्त्व का सबसे बड़ा कार्य अपनी जनता को कुछ देना होता है, तो वह है - आशा देना... उम्मीद देना... और अगर नेतृत्त्व यह देने में विफल रहता है तो वह अपने नेतृत्त्व करने के अधिकार को खो देता है. एक प्रधानमंत्री के तौर पर आपका सबसे ज्यादा उत्तरदायित्व देश कि जनता के प्रति है, क्या आप उसको निभा पा रहे हैं? कहा जाता है कि भले ही सत्ता कुछ करे नहीं, पर कम से कम करती नजर तो आनी चाहिए ताकि लोगों कि आशाएं तो बची रहें, अफ़सोस अब वो भी नहीं बची हैं.
मुझे यह कहते हुए अफ़सोस है कि कम से कम मेरी तरफ से आपका स्वागत नहीं है. इस वक़्त मैं आपसे कुछ और ही करने कि अपेक्षा करता हूँ. देश संकटों से गुजर रहा है, ऐसी राजनीतिक निराशा जो आज हर ओर पसरी पड़ी है, पहले कभी न थी. आप विमानों में उड़ते हैं, वातानुकूलित कक्षों में बैठकें करते हैं, आप कैसे जानेंगे कि देश का आम आदमी किस व्यथा से गुजर रहा है. मैं यह पत्र उस आदमी कि तरफ से लिख रहा हूँ, जो माल बन चुका है. मतलब जैसा कि आप कहते नहीं हैं, कि हमारे पास बहुत ज्यादा मानव संसाधन है, वो वाला नहीं; बल्कि वो वाला जो ट्रेन के किसी जनरल डिब्बे में माल कि तरह ठूँसकर एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाया जाता है. वो जो दो वक़्त का खाना भी अपने बच्चों को न दे पाने के कारण रोता है, और तब और भी ज्यादा रोता है जब आप १६ % की दर से बढ़ती महंगाई के आकड़ों को छुपाकर, केवल ये बताते हैं कि औसत आय १०% बढ़ गयी है. मैं आपकी तरह अर्थशास्त्री तो नहीं हूँ, पर मुझे तो यही लगता है कि आय जब मंहगाई से तेज बढ़े, तब विकास होता है, नाकि तब, जब मंहगाई ज्यादा तेजी से बढ़ रही हो.
प्रधानमंत्री जी! देश में बहुत सी समस्याएँ हैं. कभी इन पर भी गौर फरमा लिया कीजिये, बजाय के G-20 की बैठक में मिली तारीफों से खुश होने के. रोज माओवादी जान ले रहे हैं. छत्तीसगढ़ से लेकर झारखण्ड के जंगलों में मरने वाले सी.आर.पी.एफ. के जवान हमारे ही देश के किसानों के बच्चे हैं. उबल रहा कश्मीर भी अपने ही देश का हिस्सा है. पर नजर ही नहीं आ रहा है की सरकार जिसके की आप प्रमुख हैं, कुछ कर रही है; करने की तो छोड़िये, ये भी नहीं लग रहा है की वो कुछ करने की सोच भी रही है. पाकिस्तान को लेकर तो खैर कोई नीति है ही नहीं आपके पास और लगता है कि उस नीति को ७, रेसकोर्स रोड कम, व्हाइट हॉउस के बयान ज्यादा निर्धारित करते हैं.
प्रिय प्रधानमंत्री जी! कम से कम कुछ ऐसा तो करिये कि हमें लगे कि आप कुछ करना भी चाहते हैं. वरना लगता है कि इस देश को सरकार कम और भगवान ज्यादा चला रहे हैं; और मुरली देवड़ा जैसे आपके मंत्री भी हमसे इश्वर से दुआ मांगने कि बात कह चुके हैं. आखिर में वही बात फिर से कहूँगा कि आप को देखकर कम से कम हमारी आशाएं तो जगनी चाहिए. अफ़सोस! ऐसा नहीं हो रहा है, आपका नेतृत्व विफल रहा है, और इसलिए मैं आपसे उम्मीद करता हूँ कि कृपया लोकतंत्र के इस सबसे उच्च पद को त्याग दीजिये. और हाँ आपका स्वागत नहीं है.
एक आम भारतीय छात्र
आई.आई.टी. कानपुर
आपको एक दिलचस्प घटना-क्रम बताता हूँ. जैसा कि सबको पता है कि आप कल अपने पावन चरणों को हमारे संस्थान आई.आई.टी. कानपुर और शहर के एक अन्य स्थान में रखकर और अपनी खास सुरक्षा के कारण हम जैसे आम छात्रों और नगरवासियों को भरपूर परेशान करेंगे; मैंने विचार किया था कि आपको एक ज्ञापन के माध्यम से अपनी और अपने देशवासियों कि समस्याओं से अवगत कराऊंगा. अतः मैंने क्या माँगे दी जाए इस पर एक मित्र से विचार करना प्रारंभ किया. मेरे मित्र ने जो पहली बात कही वो आँखे खोलने वाली थी. उसने कहा "माँगों पर बाद में विचार करेंगे, पहले ये बताओ कि, तुमको क्या लगता है, मनमोहन जी को माँगे सौपने से कोई फायदा होने वाला है?". मैं इस प्रश्न पर निरुत्तर रह गया. मैं खुद ऐसा एक फायदा नहीं सोच पा रहा था, जो आपको माँगे सौपने से हो.
यह बात काफी समय तक मेरे दिमाग में घूमती रही. आखिर प्रधानमंत्री से भी कोई उम्मीद न होना लोकतंत्र के लिए कतई शुभ नहीं है. मैंने एक बात सीखी है और मैं आपसे वो बात कहना चाहता हूँ... नेतृत्त्व का सबसे बड़ा कार्य अपनी जनता को कुछ देना होता है, तो वह है - आशा देना... उम्मीद देना... और अगर नेतृत्त्व यह देने में विफल रहता है तो वह अपने नेतृत्त्व करने के अधिकार को खो देता है. एक प्रधानमंत्री के तौर पर आपका सबसे ज्यादा उत्तरदायित्व देश कि जनता के प्रति है, क्या आप उसको निभा पा रहे हैं? कहा जाता है कि भले ही सत्ता कुछ करे नहीं, पर कम से कम करती नजर तो आनी चाहिए ताकि लोगों कि आशाएं तो बची रहें, अफ़सोस अब वो भी नहीं बची हैं.
मुझे यह कहते हुए अफ़सोस है कि कम से कम मेरी तरफ से आपका स्वागत नहीं है. इस वक़्त मैं आपसे कुछ और ही करने कि अपेक्षा करता हूँ. देश संकटों से गुजर रहा है, ऐसी राजनीतिक निराशा जो आज हर ओर पसरी पड़ी है, पहले कभी न थी. आप विमानों में उड़ते हैं, वातानुकूलित कक्षों में बैठकें करते हैं, आप कैसे जानेंगे कि देश का आम आदमी किस व्यथा से गुजर रहा है. मैं यह पत्र उस आदमी कि तरफ से लिख रहा हूँ, जो माल बन चुका है. मतलब जैसा कि आप कहते नहीं हैं, कि हमारे पास बहुत ज्यादा मानव संसाधन है, वो वाला नहीं; बल्कि वो वाला जो ट्रेन के किसी जनरल डिब्बे में माल कि तरह ठूँसकर एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाया जाता है. वो जो दो वक़्त का खाना भी अपने बच्चों को न दे पाने के कारण रोता है, और तब और भी ज्यादा रोता है जब आप १६ % की दर से बढ़ती महंगाई के आकड़ों को छुपाकर, केवल ये बताते हैं कि औसत आय १०% बढ़ गयी है. मैं आपकी तरह अर्थशास्त्री तो नहीं हूँ, पर मुझे तो यही लगता है कि आय जब मंहगाई से तेज बढ़े, तब विकास होता है, नाकि तब, जब मंहगाई ज्यादा तेजी से बढ़ रही हो.
प्रधानमंत्री जी! देश में बहुत सी समस्याएँ हैं. कभी इन पर भी गौर फरमा लिया कीजिये, बजाय के G-20 की बैठक में मिली तारीफों से खुश होने के. रोज माओवादी जान ले रहे हैं. छत्तीसगढ़ से लेकर झारखण्ड के जंगलों में मरने वाले सी.आर.पी.एफ. के जवान हमारे ही देश के किसानों के बच्चे हैं. उबल रहा कश्मीर भी अपने ही देश का हिस्सा है. पर नजर ही नहीं आ रहा है की सरकार जिसके की आप प्रमुख हैं, कुछ कर रही है; करने की तो छोड़िये, ये भी नहीं लग रहा है की वो कुछ करने की सोच भी रही है. पाकिस्तान को लेकर तो खैर कोई नीति है ही नहीं आपके पास और लगता है कि उस नीति को ७, रेसकोर्स रोड कम, व्हाइट हॉउस के बयान ज्यादा निर्धारित करते हैं.
प्रिय प्रधानमंत्री जी! कम से कम कुछ ऐसा तो करिये कि हमें लगे कि आप कुछ करना भी चाहते हैं. वरना लगता है कि इस देश को सरकार कम और भगवान ज्यादा चला रहे हैं; और मुरली देवड़ा जैसे आपके मंत्री भी हमसे इश्वर से दुआ मांगने कि बात कह चुके हैं. आखिर में वही बात फिर से कहूँगा कि आप को देखकर कम से कम हमारी आशाएं तो जगनी चाहिए. अफ़सोस! ऐसा नहीं हो रहा है, आपका नेतृत्व विफल रहा है, और इसलिए मैं आपसे उम्मीद करता हूँ कि कृपया लोकतंत्र के इस सबसे उच्च पद को त्याग दीजिये. और हाँ आपका स्वागत नहीं है.
एक आम भारतीय छात्र
आई.आई.टी. कानपुर
शुक्रवार, 11 जून 2010
मोदी और मायावती
नरेन्द्र मोदी और मायावती दोनों भारतीय राजनीति के कुछ सबसे चर्चित चेहरों में से एक हैं. दोनों में काफी समानताएं और असमानताएं हैं. दोनों की छवि एक सख्त इंसान की है, और माना जाता है कि इनकी सरकार के भीतर ये खुद ही नम्बर दो हैं. अर्थात, दोनों अपनी अपनी सरकार में निर्णय लेने को लगभग पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं. परन्तु कुछ समानताओं के बावजूद दोनों में बड़ी ही ज्यादा विषमतायें हैं. और वैसे तो मैं जानता हूँ कि दूर के ढोल सुहावने ही लगते हैं, पर फिर भी एक बड़ा ही दिलचस्प सत्य है कि हमारे उत्तर प्रदेश के बहुत से लोगों का मानना है कि काश उत्तर प्रदेश में मोदी जैसा कोई सी. एम. बन जाए, तो प्रदेश का भला हो जाय; हाँलाकि, गुजरात वाले मायावती के बारे में ऐसा कितनी बार सोचते हैं, यह एक अध्ययन का विषय है.
अभी विगत दिनों कल दो बातें पढ़ीं. एक तो मोदी का भाजपाई मुख्यमंत्रियों के सम्मलेन में दिया गया व्याख्यान और दूसरा मायावती का निकाय चुनावों को बिना पार्टी चिन्ह के करने का निर्णय. मोदी का भाषण एक नयी सोच को प्रतिबिंबित करता है और प्रशासनिक कार्यप्रणाली में विकास को मुख्य रूप से रेखांकित करता है, वहीँ मायावती का निर्णय स्थानीय विकेंद्रीकरण को हतोत्साहित करने वाला एक निर्णय है.
आज एक आम उत्तर प्रदेश का निवासी गुजरात को देखकर इर्ष्या करता है, तो इसके मूल में कहीं न कहीं मोदी और मायावती तो हैं ही. गुजरात के शहर देश के सबसे सुव्यवस्थित शहरों में से एक हैं, और अपने कानपुर व इलाहाबाद की व्यवस्था के क्या कहने! आप चाहे लखनऊ-अहमदाबाद/गांधीनगर की तुलना कर लें, चाहें कानपुर-सूरत की, गुजराती शहर हमारे शहरों से बीस नहीं, बल्कि इक्कीस बैठेंगे. अहमदाबाद और सूरत की निकायी संस्थाएं लगातार राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार पाती हैं, और हमें तो अभी तक आधे दिन बिजली भी नहीं मिलती है. एक जगह धर्मस्थलों को हटाकर जनता के लिए सड़कें बनती हैं, तो हमारे यहाँ नए धर्मस्थल बनते हैं, जिनमें स्वयं हमारी मुख्यमंत्री जी ही देवियों का रूप रख लेती हैं.
वैसे मोदी और मायावती का राजनीतिक सफ़र में भी ज्यादा अंतर नहीं है. पहले ने सत्ता पर पूरी तरह से कब्ज़ा भारत के दूसरे सबसे भयानक दंगों के बाद साम्प्रदायिकता के रथ पर सवार होकर किया, तो दूसरे नें जातियों के मध्य पहले तो दूरियां बढ़ाकर (तिलक, तराजू और तलवार........) और फिर बाद में उन्हीं का संघ बनाकर (दलित-ब्राहमण सम्मलेन) किया. परन्तु उसके बाद के प्रशासन में जमीन - आसमान का फर्क है. आज जहाँ एक आम गुजराती मोदी को अपना मुख्यमंत्री कहता है, हमारे यहाँ का एक भी आम आदमी शायद ही ऐसी सोच रखता हो. गुजरात में आप मुख्यमंत्री जी से सवाल कर सकते हैं, उनकी वेबसाइट पर जाकर सीधे सीधे सुझाव भी दे सकते हैं, वहीँ यू.पी. में यह हाल है कि अधिसूचना जारी होने के २८ दिन बाद जाकर जनता को पता ही चलता है कि "अरे! ऐसा कब हो गया?" और फिर दो दिन के अन्दर आप पूरी अधिसूचना को समझकर अपनी आपत्तियां दाखिल कैसे करेंगे, ये राज्य सरकार क्यूँ जाने? आप में से ही कोई बताये क्या अपने उत्तर प्रदेश में ऐसा हो सकता है कि मैं अपनी समस्या को सीधे सी.एम. आफिस तक पहुँचा सकूँ.
वैसे २०१२ मैं दोनों राज्यों में चुनाव होंगे, जिसमें माना जा रहा है कि दोनों की ही सत्ता में वापसी हो जायेगी, बस कारण थोड़े अलग हैं. मोदी जी की जहाँ अपनी छवि के बल पर चुनाव जीतने की संभावना है, वहीँ मायावती जी के विरोधियों की छवि के बल पर. आखिर उत्तर प्रदेश के विपक्ष में कोई विकल्प के रूप में मायावती से बेहतर भी तो नहीं दिखता है. खैर अब जैसी राजनीति, वैसा प्रदेश. गुजरात वाले विकास, सड़कों, बिजली और रोजगार के मुद्दों पर वोट करेंगे, और चुनाव के बाद उन्हें वो मिलेगा भी, और हम करेंगे हमेशा कि तरह जात-पात के आधार पर, तो हमें भी इससे ज्यादा कुछ मिलेगा भी नहीं, कम से कम बिजली, सड़क और रोजगार तो नहीं ही. तो बात घूम फिर कर मोदी और मायावती से हटकर हम पर ही आती है. आखिर मोदी और मायावती को हम ही चुनते हैं, और नतीजे भी हमीं को मिलते हैं.
अभी विगत दिनों कल दो बातें पढ़ीं. एक तो मोदी का भाजपाई मुख्यमंत्रियों के सम्मलेन में दिया गया व्याख्यान और दूसरा मायावती का निकाय चुनावों को बिना पार्टी चिन्ह के करने का निर्णय. मोदी का भाषण एक नयी सोच को प्रतिबिंबित करता है और प्रशासनिक कार्यप्रणाली में विकास को मुख्य रूप से रेखांकित करता है, वहीँ मायावती का निर्णय स्थानीय विकेंद्रीकरण को हतोत्साहित करने वाला एक निर्णय है.
आज एक आम उत्तर प्रदेश का निवासी गुजरात को देखकर इर्ष्या करता है, तो इसके मूल में कहीं न कहीं मोदी और मायावती तो हैं ही. गुजरात के शहर देश के सबसे सुव्यवस्थित शहरों में से एक हैं, और अपने कानपुर व इलाहाबाद की व्यवस्था के क्या कहने! आप चाहे लखनऊ-अहमदाबाद/गांधीनगर की तुलना कर लें, चाहें कानपुर-सूरत की, गुजराती शहर हमारे शहरों से बीस नहीं, बल्कि इक्कीस बैठेंगे. अहमदाबाद और सूरत की निकायी संस्थाएं लगातार राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार पाती हैं, और हमें तो अभी तक आधे दिन बिजली भी नहीं मिलती है. एक जगह धर्मस्थलों को हटाकर जनता के लिए सड़कें बनती हैं, तो हमारे यहाँ नए धर्मस्थल बनते हैं, जिनमें स्वयं हमारी मुख्यमंत्री जी ही देवियों का रूप रख लेती हैं.
वैसे मोदी और मायावती का राजनीतिक सफ़र में भी ज्यादा अंतर नहीं है. पहले ने सत्ता पर पूरी तरह से कब्ज़ा भारत के दूसरे सबसे भयानक दंगों के बाद साम्प्रदायिकता के रथ पर सवार होकर किया, तो दूसरे नें जातियों के मध्य पहले तो दूरियां बढ़ाकर (तिलक, तराजू और तलवार........) और फिर बाद में उन्हीं का संघ बनाकर (दलित-ब्राहमण सम्मलेन) किया. परन्तु उसके बाद के प्रशासन में जमीन - आसमान का फर्क है. आज जहाँ एक आम गुजराती मोदी को अपना मुख्यमंत्री कहता है, हमारे यहाँ का एक भी आम आदमी शायद ही ऐसी सोच रखता हो. गुजरात में आप मुख्यमंत्री जी से सवाल कर सकते हैं, उनकी वेबसाइट पर जाकर सीधे सीधे सुझाव भी दे सकते हैं, वहीँ यू.पी. में यह हाल है कि अधिसूचना जारी होने के २८ दिन बाद जाकर जनता को पता ही चलता है कि "अरे! ऐसा कब हो गया?" और फिर दो दिन के अन्दर आप पूरी अधिसूचना को समझकर अपनी आपत्तियां दाखिल कैसे करेंगे, ये राज्य सरकार क्यूँ जाने? आप में से ही कोई बताये क्या अपने उत्तर प्रदेश में ऐसा हो सकता है कि मैं अपनी समस्या को सीधे सी.एम. आफिस तक पहुँचा सकूँ.
वैसे २०१२ मैं दोनों राज्यों में चुनाव होंगे, जिसमें माना जा रहा है कि दोनों की ही सत्ता में वापसी हो जायेगी, बस कारण थोड़े अलग हैं. मोदी जी की जहाँ अपनी छवि के बल पर चुनाव जीतने की संभावना है, वहीँ मायावती जी के विरोधियों की छवि के बल पर. आखिर उत्तर प्रदेश के विपक्ष में कोई विकल्प के रूप में मायावती से बेहतर भी तो नहीं दिखता है. खैर अब जैसी राजनीति, वैसा प्रदेश. गुजरात वाले विकास, सड़कों, बिजली और रोजगार के मुद्दों पर वोट करेंगे, और चुनाव के बाद उन्हें वो मिलेगा भी, और हम करेंगे हमेशा कि तरह जात-पात के आधार पर, तो हमें भी इससे ज्यादा कुछ मिलेगा भी नहीं, कम से कम बिजली, सड़क और रोजगार तो नहीं ही. तो बात घूम फिर कर मोदी और मायावती से हटकर हम पर ही आती है. आखिर मोदी और मायावती को हम ही चुनते हैं, और नतीजे भी हमीं को मिलते हैं.
मंगलवार, 8 जून 2010
भोपाल के बहाने : क्या हमें अब क्रांति की जरूरत है?
आखिर भोपाल - गैस काण्ड का न्याय आ गया. ३ दिसंबर १९८४ की सुबह भोपाल की सड़कों पर ढेर सारी लाशें बिछी थीं. वो मानव थे, पर जीवित ना थे. पर हमारे नीति - नियंताओं के लिए शायद वो मानव न थे. अगर होते तो उनकी जिंदगी की कीमत इतनी सस्ती न होती. २६ साल के बाद अदालत का नतीजा और वो भी आरोपियों को बस २- २ साल की कैद की सजा, परन्तु इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात, आरोपियों को उसी दिन जमानत भी मिल जाना. क्या २०००० आम गरीब भारतीयों की जान इतनी सस्ती है? और इस पर हाय तौबा मचा रहे हैं वो लोग जिनके कन्धों पर जिम्मेदारी थे इस पूरे मामले को अंजाम तक पहुचाने की. पता नहीं त्रासदी क्या थी, जो उस रात हुई, या फिर जो उसके बाद उस घटना के पीड़ितों के साथ २६ सालों में हुआ. यही नहीं जब फैसला आया हमारे प्रधानमंत्री जी उस वक़्त हमें यह बताने में व्यस्त थे, कि हमारे लिए पाकिस्तान कि खुशहाली कितनी जरूरी है.
मामले का मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन आज तक हमारी सरकार के हाथों के बाहर है, और न्यूयार्क के निकट एक कोठी में आराम फरमा रहा है (हमारे प्रधानमंत्री के अनुसार भारत - अमेरिका सम्बन्ध नयी ऊंचाइयों पर हैं). याद रहे कि वारेन एंडरसन को देश से बाहर एक सरकारी विमान में बैठाकर भेजा गया था, और उसके बाद भारत सरकार ने आज तक उसको फिर से भारत लाने का कोई प्रयास नहीं किया. इसके पीछे माना जाता है कि सरकार कि यह सोच है कि ऐसा करने से विदेशी निवेश गिर सकता है. विश्व कि सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदियों में से एक के आरोपी मात्र इस कारण बाहर हो सकते हैं, तो आप जान सकते हैं कि हम कितनी बड़ी विश्व महाशक्ति बन चुके हैं. वास्तव में हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं, जहाँ पर मेरे और आप जैसे लोगों का मूल्य कुछ कागज के टुकड़ों में नापा जा सकता है. कभी वो ६०००० हो सकता है, कभी १,००,००० या कभी ५ लाख. पर यह तय है कि हमारा मूल्य इन चंद रुपयों से ज्यादा कुछ नहीं है. हम एक लोकतांत्रिक देश में हैं, ऐसा तो अब आभास होना भी बंद हो गया है. हम एक ऐसे देश में हैं जहाँ कोई भी साजिश रचकर कितनों को मार सकता है और हम कुछ नहीं करेंगे (रिचर्ड हेडली प्रकरण) , किसी की लापरवाही से हजारों अमूल्य जाने जाएँ, हम तब भी कुछ नहीं करेंगे(वारेन एंडरसन), कोई हमारे लोकत्रंत के सर्वोच्च स्तम्भ पर हमला करे, हम तब भी कुछ नहीं करेंगे (अफज़ल गुरु), कोई देश में आकर घोटाले कर जाय, हम तब भी कुछ नहीं करेंगे, और उसे भला आदमी भी कहेंगे(क्वात्रोची प्रकरण). यदि आपको सम्पूर्ण विश्व में इससे कमजोर सत्ता कोई और दिखे तो बताइयेगा.
और इस काण्ड के बाद भी हमारा अमेरिकी कंपनियों पर विश्वास तो देखिये, हम एक विधेयक लाने जा रहे हैं, जिसमे अब उन कंपनियों को इजाजत होगी कि अगर उनकी वजह से कोई परमाणु विकिरण जैसी घटना भी हो जाए, और लाखों नहीं करोड़ों भी मर जाएँ तो भी हम उसको सजा नहीं देंगे.
आखिर कब तक हम कुछ सत्ताधारियों की सनक को भुगतेंगे? क्रांति की बात करने वाले रूमानी दुनिया में जीने वाले लोग हो सकते हैं, पर आप ही बताएं, आज हमारे और आपके पास और कितने रास्ते बचे हैं, अपने अस्तित्व को बचने के लिए?
मंगलवार, 20 अप्रैल 2010
A request to friends of my campus
Hi friends,
A very very warm summer!! The mercury has gone up over 44 degree Celsius
in (our beloved) city Kanpur. Just 9 years back on the same date it was
less than 35 degree Celsius and never crossed 40 degree Celsius for last
so many years. Actually it is highest since recording of temperature has
been done.
So we are using all our cooling equipments to keep the temperature low or
very low so than we can live, and are also using these equipments to cool
our room even when we are not inside our room (possibly, so that our bed
and books can live).
Now here are some facts for you -
1. Daily more than 5 "dharna","Upadrav" or "Gherao" happens in our city,
because people don't get electricity in night (and yes! in day too).
Kanpur city doesn't get power supply for even 12 H/day.
2. Our District hospital have a separate electricity supply feeder like
our institute, but for whatever reason, we get 24X7 supply of electricity,
while people who are sick have to spent sleepless nights. The reason?
(un)fortunately we IITian get priority over them.
3. In our state (many of you don't consider Kanpur as our city, or U.P. as
our state, but by law it is the fact), the JANTA is facing acute shortage
of power. They can blame Central government, State government or even NTPC
for it, but if anyone else has to be blamed then it is we, IITian along
with other persons living in so called VIP areas.
Per capita use of power in IIT is 4 to 5 times higher than an average
"Kanpuria" person.
But if you think 5 fold use of electricity is justifiable for some
reasons, then there is something more which can be added to it, and which
can not be justified by any way:
"Per person use of water in IIT is more than 20times higher than other
people living in same city"
To supply us such a huge amount of water (15MLD - million liters per day),
we have tube wells which sucks water from depth as mush as 350 meters
(Approximately 1300 feet) and do you know the water table recharging
capacity of our institute. It is not very difficult to guess, It is
exactly equal to one default value i.e. a big ABSOLUTE ZERO.
The adjoining areas of our (un)holy institute are facing shortage of
water, because they can't dig up to the depth of 1500 feet, they rely on
their hand-pumps, which have been dried, thanks to us. At a depth of 1300
feet, we get 'pure drinking water' and we are using this priceless
resource to maintain our artificial grassland, which no one uses; or to
flush our toilets. It doesn't sound good, but we, people of IIT Kanpur,
some times back who were considered as most intelligent people of this
county, don't apply any single method to reuse water inside our campus.
And why the term like 'some times back'? Because some years back people
inside campus and outside too used to say that "IIT is pride of Kanpur",
but now a lot of outside campus community (including many of campus
community too) say that "IIT is actually a burden over Kanpur". And
logically they have full right to say this as we are snatching resources
from them which are meant to be used by all. According to a UN report 1
billion of world population don't have access to drinking water, And we
are using/wasting pure drinking water for all our needs and luxuries.
But is all really so black? The answer is NO. Now we did so much WRONG
that we have ample opportunity to correct it. (Its like giving a make-up
examination with a zero mark on previous one). It is the time to stand up
and say that we can be considered as one, for whom country and society
should spend their wealth, and we are not selfish enough to put our hand
over others wealth.
So now we have a chance. Whenever you see a switch which is ON, you have
an opportunity to make an impact, just OFF it and think about some early
teenagers which can now study in evening, because you made their tube
lights lit. You reuse EK BALTI PANI, and one family of our city will have
drinking water for whole day. You switch off any unnecessary lighting
bulb/CFL at night, some patient in general ward of hospital can have a
good sleep, increasing his/her chance of recovery.
I know all of you will definitely like to hear than someone has a smile on
one's face because of you. Now you have a chance. JUST DO IT.
Thank You!
With a request,
Pankaj.
शुक्रवार, 22 जनवरी 2010
मंहगाई और सरकार
बुधवार, 20 जनवरी 2010
राहुलवाणी - अबकी मंहगाई पर
हमारे देश में कई तरह के लोग पाए जाते हैं। पाए जाते हैं शब्द थोड़ा सा सख्त लग सकता है, पर "हर कोई अपना भाग्य लेकर पैदा होता है" ये कहावत सबसे अधिक यहीं पर सच होती है। तो हमारे लोकतान्त्रिक देश में एक खास किस्म का राजपरिवार है, जिसमें परनाना भी हैं, जो देश कि तबाही के कई कारणों के लिए जिम्मेदार रहे हैं। उसी वंश में एक तानाशाह नानी जी भी हो चुकी हैं, जिनके लिए देश के आम आदमी कि जान की भी कोई कीमत न थी (मैं यहाँ पर याद दिलाना चाहूँगा कि आपातकाल के वक़्त संविधान के अनुच्छेद - २१ द्वारा प्रदत्त व्यक्ति के जीने के अधिकार को भी निलंबित कर दिया गया था)। फिर पापा जी आये, जो कठमुल्लाओं के आगे घुटने टेकते नजर आये। खैर देश के सौभाग्य से कुछ सालों तक देश को इस पीढ़ी दर पीढ़ी के शासन से मुक्ति मिली रही, अचानक से ये परिवार अपनी सत्ता (माफ़ करने सत्ता तो देश के लोगो में निहित होनी चाहिए, पर एक परिवार के लोग इसे अपनी समझते हैं, इसलिए ऐसा लिखा है) वापस पाने के लिए लौट आये। अबकी बार यहाँ पर मम्मी जी थीं, तो वे सत्ता के रथ में आगे एक अन्य व्यक्ति को बैठाकर उसे कई सालों से हांक रही हैं। (ऐसा महाभारत में भी हो चूका है)। पर यहाँ पर इस राजपरिवार के पास एक राजनीतिक पार्टी भी है, जो कहने को तो राष्ट्रीय पार्टी है, पर जिसमें शामिल होने का बस एक ही उसूल हैं - "परिवार के गुण गाओ, सत्ता कि मलाई पाओ".
खैर अब हमारे वफादार (नोट - कृपया इसे देश कि जनता के प्रति वफादार न समझा जाय) प्रधानमंत्री जी अपने राहुल बाबा को उनका पुश्तैनी हक देने के प्रयास में हैं, पर इसके लिए एक बड़ा ही कष्टकारी (जनता के लिए, उनके लिए नहीं) तरीका अपनाया जा रहा है। सीधा सा फंडा है पहले समस्या बनाओ (कई बार इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती है, जब सरकार काम न करे तो समस्या अपने आप पैदा हो ही जाती है), फिर उस समस्या को तब तक बढ़ाओ, जब तक जनता त्राहिमाम - २ न करने लग जाए, फिर पिक्चर में राहुल बाबा को ले आओ, उनसे एक आध बयान दिलवा दो, और उसके बाद काम शुरू करो, जिससे देश कि भोली जनता (मुझे तो भोली ही लगती है, हो सकता है नेहरु परिवार इस भोलेपन को कुछ और ही समझता हो) को लगे कि अरे राहुल बाबा तो उनका बड़ा ही ख्याल रखते हैं, और उनकी इमेज बनाने का एक और मौका मिल जाए।
इसी कड़ी में हमारे राहुल बाबा ने एक नया बयान दिया, जो कि एक राष्ट्रीय [पारिवारिक] पार्टी के महासचिव के पद पर बैठे व्यक्ति के द्वारा दिया गया हास्यापद सा बयान है - "कांग्रेस के पास मनमोहन सिंह, पी. चिदंबरम, मोंटेक सिंह अहलुवालिया और प्रणव मुखर्जी जैसे अर्थशास्त्री हैं, और इनके प्रयासों से कुछ ही दिनों मैं मंहगाई कम हो जाएगी."
अब सबसे पहली बात तो यही दिमाग में आती है, कि क्या इन लोगों ने कांग्रेस में 'जय परिवार' बोलकर नई - २ इंट्री ली है जो अब मंहगाई कम हो जायेगी, आखिर ये तो तब भी थे जब मंहगाई सुरसा के मुंह कि तरह बढ़ रही थी, (अभी भी बढ़ ही रही है), अचानक से इनके हाथ में कौन सी जादुई छड़ी लग जाएगी कि मंहगाई कम हो जाएगी। और अगर उनके पास ये छड़ी पहले से थी और ये लोग उस छड़ी को घुमाने से पहले परिवार के बयान का इन्तजार कर रहे थे, तो बाबा जी अपने बयान देने में बहुत देर कर दी है, अब तक आपको पता नहीं होगा कि कितने लोग १ साल से रोज दो वक़्त का खाना भी नहीं खा पा रहे हैं, घर के खर्च को काबू में करने के लिए कितनी बेटियों कि पढ़ाई छुड़वा दी जा चुकी है। कितने लोग जिन्होंने इस दौरान अपनी बेटियों का ब्याह किया है, किस भीषण क़र्ज़ में डूब चुके हैं, और कितने छोटे व्यापारी माल की बिक्री बंद होने से तबाह हो चुके हैं। और इस दौरान आपके ये चार [कु]ख्यात अर्थशास्त्री क्या कर रहे थे, आप भले न जाने लेकिन 'ये पब्लिक है, सब जानती है'।
पहले तथाकथित प्रधानमंत्री जी हैं जो हमको विकास दर और सेंसेक्स का झुनझुना दिखा रहे थे, अहलुवालिया जी कि योजनायें तो खैर हमेशा से असफल होने को अभिशप्त हैं हीं। वित्त मंत्री जी कि बस एक बात अच्छी थी वो हमें कोई झुनझुना नहीं दे रहे थे, साफ़ साफ़ शब्दों में कह रहे थे कि भाई विकास(किसका होगा!) होगा तो जनता को थोड़ा-बहुत (या बहुत ज्यादा) कष्ट तो उठाना ही पड़ेगा। रही बात गृह मंत्री जी कि तो उनसे तो हमारी यही उम्मीद है कि पहले वो अपना काम तो ठीक से बिगाड़ लें, अर्थव्यवस्था को बिगाड़ने के लिए बाकी तीन ही पर्याप्त हैं जी, माओवादियों के होते आपके पास इतना टाइम कैसे है, वैसे भी कुछ दिन पहले आप एक पत्रिका में दहाड़ रहे थे "मुझे एक हफ्ता दीजिये, मैं नक्सल वाद को मिटा दूंगा", पहले ये काम एक हफ्ते कि बजाय, एक पूरे कार्यकाल में तो कर लीजिये।
हाँ राहुल बाबा के बयान के बाद अचानक से इस चौकड़ी को मंहगाई एक समस्या नजर आने लगे तो और बात है, आखिर "कांग्रेस[जल] में रहकर परिवार[म..] से बैर" तो लिया नहीं जा सकता है न। काम तो अभी भी ये महान(!) अर्थशास्त्री नहीं ही करेंगे, बस उम्मीद करूँगा कि अपनी चापलूस परंपरा का पूरी तरह से निर्वहन करते हुए(मजबूरी है भाई, इस परम्पर का निर्वहन तो करेंगे ही, और कुछ करें या न करें) ये चौकड़ी कम से कम इस देश कि [गरीब]जनता के जख्मों पर नमक नहीं छिड़केंगे। वैसे सोच रहा हूँ कि मैं भी एक बार 'जय [राज]परिवार' कह दूँ, शायद थोड़ी सी मलाई मेरे हिस्से में भी आ जाय, दाल - शक्कर तो मेरे ही नहीं हर किसी के बस के बाहर जा ही चुकी है।
खैर अब हमारे वफादार (नोट - कृपया इसे देश कि जनता के प्रति वफादार न समझा जाय) प्रधानमंत्री जी अपने राहुल बाबा को उनका पुश्तैनी हक देने के प्रयास में हैं, पर इसके लिए एक बड़ा ही कष्टकारी (जनता के लिए, उनके लिए नहीं) तरीका अपनाया जा रहा है। सीधा सा फंडा है पहले समस्या बनाओ (कई बार इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती है, जब सरकार काम न करे तो समस्या अपने आप पैदा हो ही जाती है), फिर उस समस्या को तब तक बढ़ाओ, जब तक जनता त्राहिमाम - २ न करने लग जाए, फिर पिक्चर में राहुल बाबा को ले आओ, उनसे एक आध बयान दिलवा दो, और उसके बाद काम शुरू करो, जिससे देश कि भोली जनता (मुझे तो भोली ही लगती है, हो सकता है नेहरु परिवार इस भोलेपन को कुछ और ही समझता हो) को लगे कि अरे राहुल बाबा तो उनका बड़ा ही ख्याल रखते हैं, और उनकी इमेज बनाने का एक और मौका मिल जाए।
इसी कड़ी में हमारे राहुल बाबा ने एक नया बयान दिया, जो कि एक राष्ट्रीय [पारिवारिक] पार्टी के महासचिव के पद पर बैठे व्यक्ति के द्वारा दिया गया हास्यापद सा बयान है - "कांग्रेस के पास मनमोहन सिंह, पी. चिदंबरम, मोंटेक सिंह अहलुवालिया और प्रणव मुखर्जी जैसे अर्थशास्त्री हैं, और इनके प्रयासों से कुछ ही दिनों मैं मंहगाई कम हो जाएगी."
अब सबसे पहली बात तो यही दिमाग में आती है, कि क्या इन लोगों ने कांग्रेस में 'जय परिवार' बोलकर नई - २ इंट्री ली है जो अब मंहगाई कम हो जायेगी, आखिर ये तो तब भी थे जब मंहगाई सुरसा के मुंह कि तरह बढ़ रही थी, (अभी भी बढ़ ही रही है), अचानक से इनके हाथ में कौन सी जादुई छड़ी लग जाएगी कि मंहगाई कम हो जाएगी। और अगर उनके पास ये छड़ी पहले से थी और ये लोग उस छड़ी को घुमाने से पहले परिवार के बयान का इन्तजार कर रहे थे, तो बाबा जी अपने बयान देने में बहुत देर कर दी है, अब तक आपको पता नहीं होगा कि कितने लोग १ साल से रोज दो वक़्त का खाना भी नहीं खा पा रहे हैं, घर के खर्च को काबू में करने के लिए कितनी बेटियों कि पढ़ाई छुड़वा दी जा चुकी है। कितने लोग जिन्होंने इस दौरान अपनी बेटियों का ब्याह किया है, किस भीषण क़र्ज़ में डूब चुके हैं, और कितने छोटे व्यापारी माल की बिक्री बंद होने से तबाह हो चुके हैं। और इस दौरान आपके ये चार [कु]ख्यात अर्थशास्त्री क्या कर रहे थे, आप भले न जाने लेकिन 'ये पब्लिक है, सब जानती है'।
पहले तथाकथित प्रधानमंत्री जी हैं जो हमको विकास दर और सेंसेक्स का झुनझुना दिखा रहे थे, अहलुवालिया जी कि योजनायें तो खैर हमेशा से असफल होने को अभिशप्त हैं हीं। वित्त मंत्री जी कि बस एक बात अच्छी थी वो हमें कोई झुनझुना नहीं दे रहे थे, साफ़ साफ़ शब्दों में कह रहे थे कि भाई विकास(किसका होगा!) होगा तो जनता को थोड़ा-बहुत (या बहुत ज्यादा) कष्ट तो उठाना ही पड़ेगा। रही बात गृह मंत्री जी कि तो उनसे तो हमारी यही उम्मीद है कि पहले वो अपना काम तो ठीक से बिगाड़ लें, अर्थव्यवस्था को बिगाड़ने के लिए बाकी तीन ही पर्याप्त हैं जी, माओवादियों के होते आपके पास इतना टाइम कैसे है, वैसे भी कुछ दिन पहले आप एक पत्रिका में दहाड़ रहे थे "मुझे एक हफ्ता दीजिये, मैं नक्सल वाद को मिटा दूंगा", पहले ये काम एक हफ्ते कि बजाय, एक पूरे कार्यकाल में तो कर लीजिये।
हाँ राहुल बाबा के बयान के बाद अचानक से इस चौकड़ी को मंहगाई एक समस्या नजर आने लगे तो और बात है, आखिर "कांग्रेस[जल] में रहकर परिवार[म..] से बैर" तो लिया नहीं जा सकता है न। काम तो अभी भी ये महान(!) अर्थशास्त्री नहीं ही करेंगे, बस उम्मीद करूँगा कि अपनी चापलूस परंपरा का पूरी तरह से निर्वहन करते हुए(मजबूरी है भाई, इस परम्पर का निर्वहन तो करेंगे ही, और कुछ करें या न करें) ये चौकड़ी कम से कम इस देश कि [गरीब]जनता के जख्मों पर नमक नहीं छिड़केंगे। वैसे सोच रहा हूँ कि मैं भी एक बार 'जय [राज]परिवार' कह दूँ, शायद थोड़ी सी मलाई मेरे हिस्से में भी आ जाय, दाल - शक्कर तो मेरे ही नहीं हर किसी के बस के बाहर जा ही चुकी है।
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