आखिर भोपाल - गैस काण्ड का न्याय आ गया. ३ दिसंबर १९८४ की सुबह भोपाल की सड़कों पर ढेर सारी लाशें बिछी थीं. वो मानव थे, पर जीवित ना थे. पर हमारे नीति - नियंताओं के लिए शायद वो मानव न थे. अगर होते तो उनकी जिंदगी की कीमत इतनी सस्ती न होती. २६ साल के बाद अदालत का नतीजा और वो भी आरोपियों को बस २- २ साल की कैद की सजा, परन्तु इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात, आरोपियों को उसी दिन जमानत भी मिल जाना. क्या २०००० आम गरीब भारतीयों की जान इतनी सस्ती है? और इस पर हाय तौबा मचा रहे हैं वो लोग जिनके कन्धों पर जिम्मेदारी थे इस पूरे मामले को अंजाम तक पहुचाने की. पता नहीं त्रासदी क्या थी, जो उस रात हुई, या फिर जो उसके बाद उस घटना के पीड़ितों के साथ २६ सालों में हुआ. यही नहीं जब फैसला आया हमारे प्रधानमंत्री जी उस वक़्त हमें यह बताने में व्यस्त थे, कि हमारे लिए पाकिस्तान कि खुशहाली कितनी जरूरी है.
मामले का मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन आज तक हमारी सरकार के हाथों के बाहर है, और न्यूयार्क के निकट एक कोठी में आराम फरमा रहा है (हमारे प्रधानमंत्री के अनुसार भारत - अमेरिका सम्बन्ध नयी ऊंचाइयों पर हैं). याद रहे कि वारेन एंडरसन को देश से बाहर एक सरकारी विमान में बैठाकर भेजा गया था, और उसके बाद भारत सरकार ने आज तक उसको फिर से भारत लाने का कोई प्रयास नहीं किया. इसके पीछे माना जाता है कि सरकार कि यह सोच है कि ऐसा करने से विदेशी निवेश गिर सकता है. विश्व कि सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदियों में से एक के आरोपी मात्र इस कारण बाहर हो सकते हैं, तो आप जान सकते हैं कि हम कितनी बड़ी विश्व महाशक्ति बन चुके हैं. वास्तव में हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं, जहाँ पर मेरे और आप जैसे लोगों का मूल्य कुछ कागज के टुकड़ों में नापा जा सकता है. कभी वो ६०००० हो सकता है, कभी १,००,००० या कभी ५ लाख. पर यह तय है कि हमारा मूल्य इन चंद रुपयों से ज्यादा कुछ नहीं है. हम एक लोकतांत्रिक देश में हैं, ऐसा तो अब आभास होना भी बंद हो गया है. हम एक ऐसे देश में हैं जहाँ कोई भी साजिश रचकर कितनों को मार सकता है और हम कुछ नहीं करेंगे (रिचर्ड हेडली प्रकरण) , किसी की लापरवाही से हजारों अमूल्य जाने जाएँ, हम तब भी कुछ नहीं करेंगे(वारेन एंडरसन), कोई हमारे लोकत्रंत के सर्वोच्च स्तम्भ पर हमला करे, हम तब भी कुछ नहीं करेंगे (अफज़ल गुरु), कोई देश में आकर घोटाले कर जाय, हम तब भी कुछ नहीं करेंगे, और उसे भला आदमी भी कहेंगे(क्वात्रोची प्रकरण). यदि आपको सम्पूर्ण विश्व में इससे कमजोर सत्ता कोई और दिखे तो बताइयेगा.
और इस काण्ड के बाद भी हमारा अमेरिकी कंपनियों पर विश्वास तो देखिये, हम एक विधेयक लाने जा रहे हैं, जिसमे अब उन कंपनियों को इजाजत होगी कि अगर उनकी वजह से कोई परमाणु विकिरण जैसी घटना भी हो जाए, और लाखों नहीं करोड़ों भी मर जाएँ तो भी हम उसको सजा नहीं देंगे.
आखिर कब तक हम कुछ सत्ताधारियों की सनक को भुगतेंगे? क्रांति की बात करने वाले रूमानी दुनिया में जीने वाले लोग हो सकते हैं, पर आप ही बताएं, आज हमारे और आपके पास और कितने रास्ते बचे हैं, अपने अस्तित्व को बचने के लिए?
Accha likha hai..
जवाब देंहटाएंKranti hi iska upaay hai..
भोपाल एक
जवाब देंहटाएंमुनाफा उनका है
श्मशान अपना है
जहर उनका है
जहरीला आसमान अपना है
अंधे यमदूत उनके हैं
यमदूतों को नेत्रदान अपना है
हमारी आंखों में जिस विकास का अंधेरा है
उनकी आंखों में उसी विकास का सपना है
भोपाल दो
जितना जहर है मिथाइल आइसो साइनेट में
हाइड्रोजन साइनाइड में
फास्जीन में
उससे ज्यादा जहर है
सरकार की आस्तीन में
जिसमें हजार-हजार देशी
हजार-हजार विदेशी सांप पलते हैं
(राजेंद्र राजन)
भोपाल गैस त्रासदी के अभियुक्तों को इतनी सस्ती सजा न्याय के नाम पर मजाक है. न्यायाधीशों को भी ऐसा निर्णय देने पर शर्म आनी चाहिए . संभव है की वे भी खरीदे गए हों. और तो और पीड़ितों को भी ठेंगा दिखा दिया गया . पूरा वाकया हम भारतवासियों के लिए शर्म की बात है . हमारे श्रम क़ानून मजाक मालूम पड़ते हैं . कोई भी विदेशी , अमेरिकी कंपनी यहाँ अपनी मनमानी करना खेल क्यूँ ना समझे जब उसे पता है की यहाँ रिक्शे वाले , पुलिस , अभियंता , मंत्री , वकील सब बिकाऊ हैं . काश कोई महात्मा गाँधी फिर पैदा होता जो हमारे आत्म सम्मान को हमारी विदेशी गुलामी , विदेशी संस्कार के अन्धानुकरण से मुक्तिदिलाता.
जवाब देंहटाएं@राजेश : बहुत खूब लिखा है.. वास्तविकता को आपने शब्दों से अच्छा पिरोया है.
जवाब देंहटाएंविचार तो ये आता है कि लोकतांत्रिकता जैसे शब्दों का महत्व और अर्थ तो खत्म ही लगता है.
न्यायपालिका पर क्या अब भरोसा करना ही छोड़ देना चाहिए ? अरे राम भरोसे अगर कोई न्याय आता तो, इससे अच्छा ही आता. अब तो देश को राम भरोसे भी नहीं छोड़ सकते.