मंगलवार, 3 जुलाई 2012

गब्बर - सांभा और मानवाधिकार.

प्रस्तुत लेख उस बातचीत पर आधारित है, जो अबू ज़ुन्दाल उर्फ़ अबू हम्ज़ा के भारत प्रत्यर्पण के बाद गब्बर और सांभा के बीच हुआ. यह पूरी तरह से सच है क्यूंकि इसे एक देवदूत मेरे कान में फूंककर गया था, और अगर किसी को कुछ पंक्तियाँ पसंद न आयें तो वह ये मान सकता है कि उन पंक्तियों को शैतान ने मेरे कान में फूंक दिया था.

गब्बर : अरे ओ सांभा!
सांभा :  जी सरदार,
गब्बर : ये संदीप पाण्डेय कहाँ है रे?
सांभा :  पता नहीं सरदार.
गब्बर : और ये अरुंधती रॉय?
सांभा : उसका भी पता नहीं.
गब्बर : और उनका बाकी का गैंग?
सांभा : उसका भी नहीं पता. पर सरदार सुबह सुबह ये इन मानवाधिकार वालों को क्यूँ याद कर रहे हो?
गब्बर : ऐसे ही. हर बार किसी आतंकवादी के पकडे जाने पर ये लोग टी.वी. पर दिखाई देते थे, अबकी नहीं दिखे तो पूछ लिया. वैसे ये मानवाधिकार क्या होता है?
सांभा : वो सरदार! ठीक से तो नहीं पता, पर ये लोग हमेशा आतंकवादियों की बात करते हैं, तो इसी को कहते होंगे मानवाधिकार.
गब्बर : ओह साला! इसको कहते हैं मानवाधिकार. वो गाँव में तो मास्टर बताया था कि मानव का मतलब तो इंसान होता है.
सांभा :  अब सरदार! स्कूल तो हम कभी गए नहीं, तो मास्टर का बताया, ये हमें क्या पता. हम तो टी.वी. ही देखते हैं.
गब्बर : हाँ! और ये टीविया से भी बहुत जानकारी मिलती है  आजकल. और क्या क्या पता चला है इन लोगों के बारे में.
सांभा : देखो सरदार. मान लो कुछ नक्सली.........
गब्बर : नक्सली?
सांभा : अरे अपने चम्बल के आगे कुछ सोचो तो पता भी चले तुम्हे. हमारे जैसे बहुत से लोग झारखण्ड और बिलासपुर के जंगल में भी बन्दूक लेकर घूमते हैं, और लोगों को मारते हैं, उन्ही को कहते हैं - नक्सली.
गब्बर : वह सांभा टी.वी. देखकर तुम तो बड़ा पढ़ लिख गए हो. अच्छा अच्छा आगे बताओ.
सांभा : हाँ तो मान लो कुछ नक्सली एक - आध गाँव जला दें, तो पुलिस क्या करेगी.
गब्बर : करेगी क्या? वही करेगी जो हमारे लिए करती है. ढूंढेगी और पकड़ पायी तो गोल्लियों से ठूंस देगी.
सांभा : हाँ तो वही करती भी है पुलिस. तब ये मानवाधिकार वालों का धंधा शुरू होता है और ये झंडा लेकर खड़े हो जाते हैं.
गब्बर : और बता सांभा. इन बातों में तो बसंती के नाच से भी ज्यादा इंटेरेस्ट आ रहा है.
सांभा : और क्या मान लो कोई आतंकवादी जिन्दा पकड़ जाए तो बताओ क्या होगा.
गब्बर : क्या 'क्या' होगा? फांसी होगी. और क्या?
सांभा : जब फांसी हो जाती है, तो ये लोग फिर से झंडा लेकर खड़े हो जाते हैं, कि फांसी नहीं दो. कम से कम उन लोगों को तो नहीं ही, जो दूसरों को मार डालते हों.
गब्बर : अरे लगता है ये लोग तो एकदम अपने जैसे हैं.
सांभा (गुस्से से) : सरदार!!!
गब्बर : अरे गुस्सा काहे रहे हो?
सांभा : सरदार हम लोग अपनी माटी से तो प्यार करत है. देश का तोड़े कि बात तो नहीं करत (गुस्से के मारे सांभा टी.वी. देख देख कर सीखी सारी खड़ी बोली भूल जाता है).
गब्बर : मतलब?
सांभा : अरे सरदार! आप जानत नहीं हैं इस लोगन का. राजा अशोक के बसाये कश्मीर का कहत हैं कि अलग कर देओ देश से. अब बताओ हम लोगन तो गरीब की लड़ाई करत हैं, पर कभी या तो न कहीं कि चम्बल का देश से अलग कर देओ.
गब्बर : सच मा?
सांभा : अउर नहीं तो का. यहन तक कि जब बम्बई में हमला भा रहा, याद होई तुमका बहुत लोग मरेन रहें.
गब्बर : हाँ हाँ याद है.
सांभा : हाँ! तो सबका पता रहा कि पाकिस्तान वाले कराइन रहा ऊ हमला. और एक थो ठो आदमी तो पकड़ा भी गा रहा, का नाम है ओके. कसाब.
गब्बर : हाँ! वह तो एकदम खुला केस रहा.
सांभा : तो ओके बाद ई संदीप पाण्डेय वाला गैंग बताइस रहा कि हमला करे वाले सारे आदमी यहीं के संघी रहे, ऊ हाफ पैंट वाले. और उनके साथ अमेरिका और एक कौनो अउर देश के लोग भी रहेन.
गब्बर : तो इनका कैसे पता चला? का ई कौनो पुलिस आयें का?
सांभा : व तो नहीं पता. अउर जउन  आप सुरुआत में पूछे रहेँ (सांभा फिर से नार्मल हो जाता है) कि अबकी बार य गैंग शांत काहे है. तो व इसलिए कि अभी तक इनका कोई कहानी नहीं मिली है.
गब्बर : एक बात कहें साभा?
सांभा : सरदार एक क्या हजार बात बताये. हम तो आपके गुलाम हैं.
गब्बर : ये सरकार तो फ़ालतू में हमारे ऊपर इनाम रखे है. असली खतरा तो और लोग हैं.

(इति)

शुक्रवार, 22 जून 2012

इलाहाबाद का नगरीय चुनाव

उत्तर प्रदेश में चल रहे नगरीय इकाइयों के चुनाव में एक से बढ़कर एक बातें दिखाई पड़ रही हैं, उनमे से कुछ पेश-ए-खिदमत हैं.

1) अगर ये चुनाव न होते तो हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे शहर में इतने सारे ईमानदार, कर्मठ और संघर्षशील लोग रहते हैं, आज के इस युग में जब इमानदारी इतनी मंहगी है, इलाहाबाद की जनता अभिभूत है. वैसे एक बात पर सभी प्रत्याशी एकमत हैं कि उनको छोड़कर बाकी सब झूठ बोल रहे हैं.

2) महिलाओं के सामाजिक अधिकारों में इतनी वृद्धि हो गयी है, कि अधिकांश महिला प्रत्याशियों के पोस्टर पर उनके नाम के साथ साथ लिखा होता है: "_________ माता/पत्नी _________ ". और ये सिर्फ पार्षद प्रत्याशियों के साथ ही नहीं है, बल्कि महापौर पद के प्रत्याशियों के साथ भी सच है. चार बड़ी पार्टियों में से तीन महिलाओं की जगह तो मानो उनके पति ही चुनाव लड़ रहे हैं. कुछ का तो यह हाल है कि लोगों को उनका नाम भी नहीं पता, बस इतना पता है कि फलानें की पत्नी चुनाव लड़ रही हैं. चुनाव आयोग को चाहिए कि वो ई.वी.एम्. में उनके पति का नाम ही डाल दें. इस व्यर्थ के महिला सशक्तिकरण से क्या लाभ?

3) सबने सोच कर रखा है कि मतदाताओं को और कुछ पता चले न चले, उनकीजाति -बिरादरी का पता जरूर चलना चाहिए. जिन लोगों का उपनाम इस काम में बाधक था, उन्होंने पूरे गर्व के साथ उपनाम के आगे अपनी जाति लिख दी है, कि कहीं उनकी जातिके लोग जाली उम्मीदवारों से धोखा न खा जाए (भला है कि चेतावनी नहीं लिखी है कि - "मिलते-जुलते उपनामों से सावधान")

4) कुछ क्षेत्रों में तो इतने उम्मीदवार हैं कि जनता को एक तिहाई उम्मीदवारों के नाम भी पता रहें तो यही बहुत है.

5) अधिकांश प्रत्याशी हमारी समस्याओं के लिए लड़ने - मरने को (और कुछ लड़ने-मारने को) तैयार बैठे हैं, पर ऐसा कुछ होगा नहीं क्यूंकि सब अहिंसावादी है.

6) कम से कम क्षेत्र की सभी महिलायें प्रसन्न हैं, कि इस चुनाव के बहाने उनको राह पर आवारा लड़कों के द्वारा होने वाली छींटाकशी से आजादी मिल गयी है, वही लड़के आजकल उनको बहन जी, भाभी जी, या माता जी कहते हुए वोट मांगते हुए फिर रहे हैं.

बाकी फिर कभी, अभी लगता है....................... दरवाजे पर कोई वोट मांग रहा है.

सोमवार, 23 जनवरी 2012

नास्तिकता खूबसूरत है.

यदि हम धर्मों के इतिहास को देखें, तो यह कह सकते हैं कि भविष्य में कोई धर्म सबसे ज्यादा मजबूत होने वाला है तो वो वह है, किसी भी ईश्वर में अविश्वास यानी नास्तिकता.

मानव इतिहास के प्रारंभिक धर्म मुख्य तौर पर आत्मवादी या फिर प्रकृतिवादी थे, अर्थात प्राकृतिक शक्तियों की उपासना करने वाले. पूर्व में विकसित होने वाले धर्म विशेषकर वह जो भारत या चीन में विकसित हुए, वह प्रारंभ में किसी दर्शन के प्रतिपादन के फलस्वरूप अस्तित्व में आये और धीरे धीरे उन्होंने धर्म का रूप ले लिया. इसके विपरीत पश्चिम एशिया से पनपने वाले धर्म मूलतः एकेश्वरवादी थे और उनमें प्रारंभ से ही धार्मिक लक्षण और विधिविधान सम्मिलित थे.
मोटे तौर पर सभी धर्म मनुष्य और ईश्वर के संबंधों की व्याख्या करते हैं. हांलाकि जैन और बौद्ध धर्म अपने प्रारंभिक रूप में अनीश्वरवादी थे, परन्तु उनमे भी मनुष्य के संसार से मुक्ति के तरीकों के बारे में कहा गया है.
नास्तिकता इन दोनों चीजों का खंडन करता है. इसके अनुसार न तो ईश्वर ही है और न ही व्यक्ति का उद्देश्य तथाकथित मुक्ति को प्राप्त करना है. इसमें लोक की ही बातें है; न तो इसमें परलोक है, न जन्म-मरण का चक्र और न ही इसके अनुसार व्यक्ति को "न्याय के दिन (judgement day)" के बाद स्वर्ग या नरक में भेजा जाएगा. भारत की भूमि पर अभी तक ज्ञात पहले नास्तिक सिद्धांत के प्रचारक केश् कम्बलिन ने लिखा है - "मरने पर मूर्ख और बुद्धिमान दोनों ही संसार से अलग होकर नष्ट हो जाते हैं. मृत्यु के पश्चात् वे जीवित नहीं रहते".

परन्तु नास्तिकतावाद ईश्वर में अविश्वास मात्र नहीं है. यह एक वैज्ञानिक सोच वाला दर्शन है जोकि ठोस तथ्यों और तर्कों पर आधारित है. यह विचारधारा हर उस बात को नकारती है जिसे वैज्ञानिक परीक्षण या तर्क के आधार पर पुष्ट न किया जा सके. चूंकि ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित नहीं किया जा सकता है, अतः यह उसके अस्तित्व को नकार देती है.

नास्तिकतावाद में भी किताबों और उसमे लिखे सिद्धांतों की जगह है; परन्तु साथ ही साथ यह उन किताबों में लिखी बातों को हुबहू स्वीकार का लेने के विरुद्ध आगाह करती है. हांलाकि कई धार्मिक सुधर आन्दोलन भी ऐसे हुए हैं, जोकि मानवीय मस्तिष्क व उसकी सोच को ईश्वरीय प्रेरणा की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति मानते हैं, लेकिन उनमें से कोई भी मोटे तौर पर धर्म के दायरे को तोड़ने की हिम्मत नहीं कर सका.

एक अन्य आश्चर्य की बात है कि जहाँ सभी धर्म मनुष्य को ईश्वर का रूप या फिर उसके द्वारा उत्पन्न मानते हैं, वहीं किसी भी धर्म में मनुष्यों की समानता को पूर्ण रूप में धरातल पर नहीं उतरा गया और प्रत्येक धर्म में विशेषाधिकार युक्त एक वर्ग मौजूद रहा जो व्यक्ति और ईश्वर के बीच के बिचौलिए का काम करता है. शायद ही किसी धर्म में सभी मनुष्यों को सामान अधिकार होने की बात कही गयी हो. इसके विपरीत नास्तिकतावाद चूंकि ईश्वर को ही  नहीं मानता है, इसमें ऐसे किसी बिचौलिए के होने की संभावना ही नहीं है.
नास्तिकता एक क़िस्म का मानववादी धार्मिक दर्शन है और यह बजाय धार्मिक मूल्यों के नैतिक मूल्यों को अधिक सराहता है. राजनीतिक क्षेत्र में भी हम इसे लोकतंत्र का सच्छा हिमायती कह सकते हैं, क्यूंकि यह किसी के भी दैवीय अधिकारों को न मानकर यह मानने पर जोर देता है कि मानव अपने जीवन और समाज का निर्माण स्वयं करता है और मानव मस्तिष्क, धर्म ग्रंथों में लिखी बातों से कहीं अधिक सोचने की क्षमता रखता है. और चूंकि यह धर्म को शिक्षा में कोई स्थान नहीं देती है, यह छात्रों के भीतर वैज्ञानिक सोच को जन्म देती है, जिसका लाभ अंततः सारे मानव समाज को होगा.

कई धार्मिक लोगों का आरोप रहा है और आज भी रहता है कि नास्तिकता अनैतिकता को प्रोत्साहित करती है. परन्तु यह नहीं समझ में आता है कि अगर ऐसा ही है तो इतने सारे धर्मों के होते हुए सामाज में इतने दुर्गुण क्यूँ व्याप्त हैं? और अनैतिकता की परिभाषा भी तो धर्म के साथ बदलती रहती है. धर्म तो स्वयं ही अनैतिकता को बढ़ावा देते हैं. किसी धर्म के अनुसार इंसान के पाप गंगा-स्नान से मिट जाते हैं, तो किसी के अनुसार एक महीने तक भूखे रहने से. वैसे भी इतिहास गवाह है कि जितने युद्ध और अत्याचार धर्म के नाम पर हुए हैं, उतने शायद ही किसी और चीज के नाम पर हुए होंगे. नास्तिकता तो संसार को उसी रूप में स्वीकार करती है जिसमे वह है और लोगों के बुद्धिमत्ता पर पूरा विश्वास रखते हुए उनको ही यह तय करने देती है कि वो संसार को खूबसूरत बनाना चाहते हैं या उसकी व्यवस्था को कुव्यवस्था में बदलना चाहते हैं. लोग स्वयं ही तर्कों के आधार पर खुद ही यह निश्चय करते हैं कि झूठ, फरेब और अन्य बुराइयों से कुव्यवस्था का जन्म होता है और इनको दूर करने की कोशिश करते हैं. बस ऐसा वो अपने दिमाग का उपयोग करके करते हैं, नाकि किसी धर्म ग्रन्थ का अन्धानुकरण कर. इस सिद्धांत के अनुसार मानव ने अपनी आदिमानव से लेकर अन्तरिक्ष मानव तक की यात्रा में जिन गुणों को विकसित किया है वो कहीं अधिक सम्मान के पात्र है, धर्मग्रंथों की तुलना में. और मानव आर्यभट्ट, गैलीलियो, न्यूटन व एडिसन का कहीं अधिक ऋणी है, बजाय मुहम्मद साहब, यीशु, या राम के.

जैसे जैसे समाज में वैज्ञानिक सोच बढ़ेगी; लोग स्वयं ही खुद को धार्मिक बंधनों से आजाद करके विश्व-मानव की परिकल्पना को साकार करेंगे. विश्व का भविष्य खूबसूरत है और यह इस्लाम, ईसाईयत या वैदिक धर्म में नहीं, तर्क और निरीश्वरवाद में है.