उत्तर प्रदेश में चल रहे नगरीय इकाइयों के चुनाव में एक से बढ़कर एक बातें दिखाई पड़ रही हैं, उनमे से कुछ पेश-ए-खिदमत हैं.
1) अगर ये चुनाव न होते तो हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे शहर में इतने सारे ईमानदार, कर्मठ और संघर्षशील लोग रहते हैं, आज के इस युग में जब इमानदारी इतनी मंहगी है, इलाहाबाद की जनता अभिभूत है. वैसे एक बात पर सभी प्रत्याशी एकमत हैं कि उनको छोड़कर बाकी सब झूठ बोल रहे हैं.
2) महिलाओं के सामाजिक अधिकारों में इतनी वृद्धि हो गयी है, कि अधिकांश महिला प्रत्याशियों के पोस्टर पर उनके नाम के साथ साथ लिखा होता है: "_________ माता/पत्नी _________ ". और ये सिर्फ पार्षद प्रत्याशियों के साथ ही नहीं है, बल्कि महापौर पद के प्रत्याशियों के साथ भी सच है. चार बड़ी पार्टियों में से तीन महिलाओं की जगह तो मानो उनके पति ही चुनाव लड़ रहे हैं. कुछ का तो यह हाल है कि लोगों को उनका नाम भी नहीं पता, बस इतना पता है कि फलानें की पत्नी चुनाव लड़ रही हैं. चुनाव आयोग को चाहिए कि वो ई.वी.एम्. में उनके पति का नाम ही डाल दें. इस व्यर्थ के महिला सशक्तिकरण से क्या लाभ?
3) सबने सोच कर रखा है कि मतदाताओं को और कुछ पता चले न चले, उनकीजाति -बिरादरी का पता जरूर चलना चाहिए. जिन लोगों का उपनाम इस काम में बाधक था, उन्होंने पूरे गर्व के साथ उपनाम के आगे अपनी जाति लिख दी है, कि कहीं उनकी जातिके लोग जाली उम्मीदवारों से धोखा न खा जाए (भला है कि चेतावनी नहीं लिखी है कि - "मिलते-जुलते उपनामों से सावधान")
4) कुछ क्षेत्रों में तो इतने उम्मीदवार हैं कि जनता को एक तिहाई उम्मीदवारों के नाम भी पता रहें तो यही बहुत है.
5) अधिकांश प्रत्याशी हमारी समस्याओं के लिए लड़ने - मरने को (और कुछ लड़ने-मारने को) तैयार बैठे हैं, पर ऐसा कुछ होगा नहीं क्यूंकि सब अहिंसावादी है.
6) कम से कम क्षेत्र की सभी महिलायें प्रसन्न हैं, कि इस चुनाव के बहाने उनको राह पर आवारा लड़कों के द्वारा होने वाली छींटाकशी से आजादी मिल गयी है, वही लड़के आजकल उनको बहन जी, भाभी जी, या माता जी कहते हुए वोट मांगते हुए फिर रहे हैं.
बाकी फिर कभी, अभी लगता है....................... दरवाजे पर कोई वोट मांग रहा है.
1) अगर ये चुनाव न होते तो हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे शहर में इतने सारे ईमानदार, कर्मठ और संघर्षशील लोग रहते हैं, आज के इस युग में जब इमानदारी इतनी मंहगी है, इलाहाबाद की जनता अभिभूत है. वैसे एक बात पर सभी प्रत्याशी एकमत हैं कि उनको छोड़कर बाकी सब झूठ बोल रहे हैं.
2) महिलाओं के सामाजिक अधिकारों में इतनी वृद्धि हो गयी है, कि अधिकांश महिला प्रत्याशियों के पोस्टर पर उनके नाम के साथ साथ लिखा होता है: "_________ माता/पत्नी _________ ". और ये सिर्फ पार्षद प्रत्याशियों के साथ ही नहीं है, बल्कि महापौर पद के प्रत्याशियों के साथ भी सच है. चार बड़ी पार्टियों में से तीन महिलाओं की जगह तो मानो उनके पति ही चुनाव लड़ रहे हैं. कुछ का तो यह हाल है कि लोगों को उनका नाम भी नहीं पता, बस इतना पता है कि फलानें की पत्नी चुनाव लड़ रही हैं. चुनाव आयोग को चाहिए कि वो ई.वी.एम्. में उनके पति का नाम ही डाल दें. इस व्यर्थ के महिला सशक्तिकरण से क्या लाभ?
3) सबने सोच कर रखा है कि मतदाताओं को और कुछ पता चले न चले, उनकीजाति -बिरादरी का पता जरूर चलना चाहिए. जिन लोगों का उपनाम इस काम में बाधक था, उन्होंने पूरे गर्व के साथ उपनाम के आगे अपनी जाति लिख दी है, कि कहीं उनकी जातिके लोग जाली उम्मीदवारों से धोखा न खा जाए (भला है कि चेतावनी नहीं लिखी है कि - "मिलते-जुलते उपनामों से सावधान")
4) कुछ क्षेत्रों में तो इतने उम्मीदवार हैं कि जनता को एक तिहाई उम्मीदवारों के नाम भी पता रहें तो यही बहुत है.
5) अधिकांश प्रत्याशी हमारी समस्याओं के लिए लड़ने - मरने को (और कुछ लड़ने-मारने को) तैयार बैठे हैं, पर ऐसा कुछ होगा नहीं क्यूंकि सब अहिंसावादी है.
6) कम से कम क्षेत्र की सभी महिलायें प्रसन्न हैं, कि इस चुनाव के बहाने उनको राह पर आवारा लड़कों के द्वारा होने वाली छींटाकशी से आजादी मिल गयी है, वही लड़के आजकल उनको बहन जी, भाभी जी, या माता जी कहते हुए वोट मांगते हुए फिर रहे हैं.
बाकी फिर कभी, अभी लगता है....................... दरवाजे पर कोई वोट मांग रहा है.
उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव पे प्रकाश डालता , यह एक अति उत्तम लेख है.
जवाब देंहटाएं- शिवानुज शुक्ला
शिवानुज जी,
जवाब देंहटाएंमेरे विचारों से सहमति जताने हेतु आपका धन्यवाद. :)
बहुत अच्छा लिख हे
जवाब देंहटाएंachcha awlokan kiya hai aapne :) ise banaye rakhe
जवाब देंहटाएं