यदि हम धर्मों के इतिहास को देखें, तो यह कह सकते हैं कि भविष्य में कोई धर्म सबसे ज्यादा मजबूत होने वाला है तो वो वह है, किसी भी ईश्वर में अविश्वास यानी नास्तिकता.
मानव इतिहास के प्रारंभिक धर्म मुख्य तौर पर आत्मवादी या फिर प्रकृतिवादी थे, अर्थात प्राकृतिक शक्तियों की उपासना करने वाले. पूर्व में विकसित होने वाले धर्म विशेषकर वह जो भारत या चीन में विकसित हुए, वह प्रारंभ में किसी दर्शन के प्रतिपादन के फलस्वरूप अस्तित्व में आये और धीरे धीरे उन्होंने धर्म का रूप ले लिया. इसके विपरीत पश्चिम एशिया से पनपने वाले धर्म मूलतः एकेश्वरवादी थे और उनमें प्रारंभ से ही धार्मिक लक्षण और विधिविधान सम्मिलित थे.
मोटे तौर पर सभी धर्म मनुष्य और ईश्वर के संबंधों की व्याख्या करते हैं. हांलाकि जैन और बौद्ध धर्म अपने प्रारंभिक रूप में अनीश्वरवादी थे, परन्तु उनमे भी मनुष्य के संसार से मुक्ति के तरीकों के बारे में कहा गया है.
नास्तिकता इन दोनों चीजों का खंडन करता है. इसके अनुसार न तो ईश्वर ही है और न ही व्यक्ति का उद्देश्य तथाकथित मुक्ति को प्राप्त करना है. इसमें लोक की ही बातें है; न तो इसमें परलोक है, न जन्म-मरण का चक्र और न ही इसके अनुसार व्यक्ति को "न्याय के दिन (judgement day)" के बाद स्वर्ग या नरक में भेजा जाएगा. भारत की भूमि पर अभी तक ज्ञात पहले नास्तिक सिद्धांत के प्रचारक केश् कम्बलिन ने लिखा है - "मरने पर मूर्ख और बुद्धिमान दोनों ही संसार से अलग होकर नष्ट हो जाते हैं. मृत्यु के पश्चात् वे जीवित नहीं रहते".
परन्तु नास्तिकतावाद ईश्वर में अविश्वास मात्र नहीं है. यह एक वैज्ञानिक सोच वाला दर्शन है जोकि ठोस तथ्यों और तर्कों पर आधारित है. यह विचारधारा हर उस बात को नकारती है जिसे वैज्ञानिक परीक्षण या तर्क के आधार पर पुष्ट न किया जा सके. चूंकि ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित नहीं किया जा सकता है, अतः यह उसके अस्तित्व को नकार देती है.
नास्तिकतावाद में भी किताबों और उसमे लिखे सिद्धांतों की जगह है; परन्तु साथ ही साथ यह उन किताबों में लिखी बातों को हुबहू स्वीकार का लेने के विरुद्ध आगाह करती है. हांलाकि कई धार्मिक सुधर आन्दोलन भी ऐसे हुए हैं, जोकि मानवीय मस्तिष्क व उसकी सोच को ईश्वरीय प्रेरणा की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति मानते हैं, लेकिन उनमें से कोई भी मोटे तौर पर धर्म के दायरे को तोड़ने की हिम्मत नहीं कर सका.
एक अन्य आश्चर्य की बात है कि जहाँ सभी धर्म मनुष्य को ईश्वर का रूप या फिर उसके द्वारा उत्पन्न मानते हैं, वहीं किसी भी धर्म में मनुष्यों की समानता को पूर्ण रूप में धरातल पर नहीं उतरा गया और प्रत्येक धर्म में विशेषाधिकार युक्त एक वर्ग मौजूद रहा जो व्यक्ति और ईश्वर के बीच के बिचौलिए का काम करता है. शायद ही किसी धर्म में सभी मनुष्यों को सामान अधिकार होने की बात कही गयी हो. इसके विपरीत नास्तिकतावाद चूंकि ईश्वर को ही नहीं मानता है, इसमें ऐसे किसी बिचौलिए के होने की संभावना ही नहीं है.
नास्तिकता एक क़िस्म का मानववादी धार्मिक दर्शन है और यह बजाय धार्मिक मूल्यों के नैतिक मूल्यों को अधिक सराहता है. राजनीतिक क्षेत्र में भी हम इसे लोकतंत्र का सच्छा हिमायती कह सकते हैं, क्यूंकि यह किसी के भी दैवीय अधिकारों को न मानकर यह मानने पर जोर देता है कि मानव अपने जीवन और समाज का निर्माण स्वयं करता है और मानव मस्तिष्क, धर्म ग्रंथों में लिखी बातों से कहीं अधिक सोचने की क्षमता रखता है. और चूंकि यह धर्म को शिक्षा में कोई स्थान नहीं देती है, यह छात्रों के भीतर वैज्ञानिक सोच को जन्म देती है, जिसका लाभ अंततः सारे मानव समाज को होगा.
कई धार्मिक लोगों का आरोप रहा है और आज भी रहता है कि नास्तिकता अनैतिकता को प्रोत्साहित करती है. परन्तु यह नहीं समझ में आता है कि अगर ऐसा ही है तो इतने सारे धर्मों के होते हुए सामाज में इतने दुर्गुण क्यूँ व्याप्त हैं? और अनैतिकता की परिभाषा भी तो धर्म के साथ बदलती रहती है. धर्म तो स्वयं ही अनैतिकता को बढ़ावा देते हैं. किसी धर्म के अनुसार इंसान के पाप गंगा-स्नान से मिट जाते हैं, तो किसी के अनुसार एक महीने तक भूखे रहने से. वैसे भी इतिहास गवाह है कि जितने युद्ध और अत्याचार धर्म के नाम पर हुए हैं, उतने शायद ही किसी और चीज के नाम पर हुए होंगे. नास्तिकता तो संसार को उसी रूप में स्वीकार करती है जिसमे वह है और लोगों के बुद्धिमत्ता पर पूरा विश्वास रखते हुए उनको ही यह तय करने देती है कि वो संसार को खूबसूरत बनाना चाहते हैं या उसकी व्यवस्था को कुव्यवस्था में बदलना चाहते हैं. लोग स्वयं ही तर्कों के आधार पर खुद ही यह निश्चय करते हैं कि झूठ, फरेब और अन्य बुराइयों से कुव्यवस्था का जन्म होता है और इनको दूर करने की कोशिश करते हैं. बस ऐसा वो अपने दिमाग का उपयोग करके करते हैं, नाकि किसी धर्म ग्रन्थ का अन्धानुकरण कर. इस सिद्धांत के अनुसार मानव ने अपनी आदिमानव से लेकर अन्तरिक्ष मानव तक की यात्रा में जिन गुणों को विकसित किया है वो कहीं अधिक सम्मान के पात्र है, धर्मग्रंथों की तुलना में. और मानव आर्यभट्ट, गैलीलियो, न्यूटन व एडिसन का कहीं अधिक ऋणी है, बजाय मुहम्मद साहब, यीशु, या राम के.
जैसे जैसे समाज में वैज्ञानिक सोच बढ़ेगी; लोग स्वयं ही खुद को धार्मिक बंधनों से आजाद करके विश्व-मानव की परिकल्पना को साकार करेंगे. विश्व का भविष्य खूबसूरत है और यह इस्लाम, ईसाईयत या वैदिक धर्म में नहीं, तर्क और निरीश्वरवाद में है.
मानव इतिहास के प्रारंभिक धर्म मुख्य तौर पर आत्मवादी या फिर प्रकृतिवादी थे, अर्थात प्राकृतिक शक्तियों की उपासना करने वाले. पूर्व में विकसित होने वाले धर्म विशेषकर वह जो भारत या चीन में विकसित हुए, वह प्रारंभ में किसी दर्शन के प्रतिपादन के फलस्वरूप अस्तित्व में आये और धीरे धीरे उन्होंने धर्म का रूप ले लिया. इसके विपरीत पश्चिम एशिया से पनपने वाले धर्म मूलतः एकेश्वरवादी थे और उनमें प्रारंभ से ही धार्मिक लक्षण और विधिविधान सम्मिलित थे.
मोटे तौर पर सभी धर्म मनुष्य और ईश्वर के संबंधों की व्याख्या करते हैं. हांलाकि जैन और बौद्ध धर्म अपने प्रारंभिक रूप में अनीश्वरवादी थे, परन्तु उनमे भी मनुष्य के संसार से मुक्ति के तरीकों के बारे में कहा गया है.
नास्तिकता इन दोनों चीजों का खंडन करता है. इसके अनुसार न तो ईश्वर ही है और न ही व्यक्ति का उद्देश्य तथाकथित मुक्ति को प्राप्त करना है. इसमें लोक की ही बातें है; न तो इसमें परलोक है, न जन्म-मरण का चक्र और न ही इसके अनुसार व्यक्ति को "न्याय के दिन (judgement day)" के बाद स्वर्ग या नरक में भेजा जाएगा. भारत की भूमि पर अभी तक ज्ञात पहले नास्तिक सिद्धांत के प्रचारक केश् कम्बलिन ने लिखा है - "मरने पर मूर्ख और बुद्धिमान दोनों ही संसार से अलग होकर नष्ट हो जाते हैं. मृत्यु के पश्चात् वे जीवित नहीं रहते".
परन्तु नास्तिकतावाद ईश्वर में अविश्वास मात्र नहीं है. यह एक वैज्ञानिक सोच वाला दर्शन है जोकि ठोस तथ्यों और तर्कों पर आधारित है. यह विचारधारा हर उस बात को नकारती है जिसे वैज्ञानिक परीक्षण या तर्क के आधार पर पुष्ट न किया जा सके. चूंकि ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित नहीं किया जा सकता है, अतः यह उसके अस्तित्व को नकार देती है.
नास्तिकतावाद में भी किताबों और उसमे लिखे सिद्धांतों की जगह है; परन्तु साथ ही साथ यह उन किताबों में लिखी बातों को हुबहू स्वीकार का लेने के विरुद्ध आगाह करती है. हांलाकि कई धार्मिक सुधर आन्दोलन भी ऐसे हुए हैं, जोकि मानवीय मस्तिष्क व उसकी सोच को ईश्वरीय प्रेरणा की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति मानते हैं, लेकिन उनमें से कोई भी मोटे तौर पर धर्म के दायरे को तोड़ने की हिम्मत नहीं कर सका.
एक अन्य आश्चर्य की बात है कि जहाँ सभी धर्म मनुष्य को ईश्वर का रूप या फिर उसके द्वारा उत्पन्न मानते हैं, वहीं किसी भी धर्म में मनुष्यों की समानता को पूर्ण रूप में धरातल पर नहीं उतरा गया और प्रत्येक धर्म में विशेषाधिकार युक्त एक वर्ग मौजूद रहा जो व्यक्ति और ईश्वर के बीच के बिचौलिए का काम करता है. शायद ही किसी धर्म में सभी मनुष्यों को सामान अधिकार होने की बात कही गयी हो. इसके विपरीत नास्तिकतावाद चूंकि ईश्वर को ही नहीं मानता है, इसमें ऐसे किसी बिचौलिए के होने की संभावना ही नहीं है.
नास्तिकता एक क़िस्म का मानववादी धार्मिक दर्शन है और यह बजाय धार्मिक मूल्यों के नैतिक मूल्यों को अधिक सराहता है. राजनीतिक क्षेत्र में भी हम इसे लोकतंत्र का सच्छा हिमायती कह सकते हैं, क्यूंकि यह किसी के भी दैवीय अधिकारों को न मानकर यह मानने पर जोर देता है कि मानव अपने जीवन और समाज का निर्माण स्वयं करता है और मानव मस्तिष्क, धर्म ग्रंथों में लिखी बातों से कहीं अधिक सोचने की क्षमता रखता है. और चूंकि यह धर्म को शिक्षा में कोई स्थान नहीं देती है, यह छात्रों के भीतर वैज्ञानिक सोच को जन्म देती है, जिसका लाभ अंततः सारे मानव समाज को होगा.
कई धार्मिक लोगों का आरोप रहा है और आज भी रहता है कि नास्तिकता अनैतिकता को प्रोत्साहित करती है. परन्तु यह नहीं समझ में आता है कि अगर ऐसा ही है तो इतने सारे धर्मों के होते हुए सामाज में इतने दुर्गुण क्यूँ व्याप्त हैं? और अनैतिकता की परिभाषा भी तो धर्म के साथ बदलती रहती है. धर्म तो स्वयं ही अनैतिकता को बढ़ावा देते हैं. किसी धर्म के अनुसार इंसान के पाप गंगा-स्नान से मिट जाते हैं, तो किसी के अनुसार एक महीने तक भूखे रहने से. वैसे भी इतिहास गवाह है कि जितने युद्ध और अत्याचार धर्म के नाम पर हुए हैं, उतने शायद ही किसी और चीज के नाम पर हुए होंगे. नास्तिकता तो संसार को उसी रूप में स्वीकार करती है जिसमे वह है और लोगों के बुद्धिमत्ता पर पूरा विश्वास रखते हुए उनको ही यह तय करने देती है कि वो संसार को खूबसूरत बनाना चाहते हैं या उसकी व्यवस्था को कुव्यवस्था में बदलना चाहते हैं. लोग स्वयं ही तर्कों के आधार पर खुद ही यह निश्चय करते हैं कि झूठ, फरेब और अन्य बुराइयों से कुव्यवस्था का जन्म होता है और इनको दूर करने की कोशिश करते हैं. बस ऐसा वो अपने दिमाग का उपयोग करके करते हैं, नाकि किसी धर्म ग्रन्थ का अन्धानुकरण कर. इस सिद्धांत के अनुसार मानव ने अपनी आदिमानव से लेकर अन्तरिक्ष मानव तक की यात्रा में जिन गुणों को विकसित किया है वो कहीं अधिक सम्मान के पात्र है, धर्मग्रंथों की तुलना में. और मानव आर्यभट्ट, गैलीलियो, न्यूटन व एडिसन का कहीं अधिक ऋणी है, बजाय मुहम्मद साहब, यीशु, या राम के.
जैसे जैसे समाज में वैज्ञानिक सोच बढ़ेगी; लोग स्वयं ही खुद को धार्मिक बंधनों से आजाद करके विश्व-मानव की परिकल्पना को साकार करेंगे. विश्व का भविष्य खूबसूरत है और यह इस्लाम, ईसाईयत या वैदिक धर्म में नहीं, तर्क और निरीश्वरवाद में है.
bhut aache
जवाब देंहटाएंaapka importance tab tak rahta hai samaj me jab tak samaj aapse kuch gain karta rahta hai , kahne ka matlab unse samaj abhi bhi kuch sikh raha hai tabhi vo astitva me hai, baki main tulna ke paksha me nahi hu sab ka apna yogdan hai
जवाब देंहटाएंसहमत ,बेहद उम्दा पोस्ट ।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब।
जवाब देंहटाएंvichaarsheel lekh.....
जवाब देंहटाएंkhoob
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